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साधारण धर्म] अर्थः-में तेरे लिये रहस्यके सहित उस तत्त्वज्ञानको अशेषता से कहूँगा कि जिसको जानकर फिर तुमे और कुछ जानना शेष, न रहेगा। - इससे स्पष्ट विदित होता है कि उपयुक्त दोनों श्लोकोंमें 'ज्ञान' व 'योग' पर्यायसे है, स्वरूपसे इनका भेद नहीं । अर्थात् 'योगयुखन करता हुआ तू समग्ररूप मुझको जान लायगा' (७. १.) तथा 'जिसको जानकर फिर तुझे और कुछ जानना शेष न रहेगा' (७. २) दोनों एक ही अर्थके द्योतक हैं, इससे 'ज्ञान' व 'योग' का अभेद सिद्ध है। तदनन्तर इसी अध्यायमें श्लोक १२ तक अपनी सर्वरूपता सम्पूर्ण भूतोंमें वर्णन की है, इससे सिद्ध है कि सर्वात्मदृष्टिका नाम ही 'योग' है।
उपयुक्त व्याख्यासे स्पष्ट है कि 'योग' शब्द गीतामें केवल निष्काम कर्मके अर्थमें ही प्रयुक्त नहीं हुया, किन्तु इसका मुख्य अर्थ भगवत्स्वरूपस्थितिरूप सिद्धावस्था ही है। 'फलाशाका परित्याग करके कर्तव्य-बुद्धिसे कर्मोमे प्रवृत्त होना' ऐसा तिलक मतमें निष्काम-कर्म-योगीका लक्षण किया गया है । परन्तु प्राकृतिक नियमके अनुसार कर्तव्य-बुद्धिके साथ कर्ता-बुद्धि बलात्कार से लागू होती है, का बुद्धिके बिना कर्तव्य बुद्धि हो नहीं सकती, जैसो इस विषयको पीछे कई स्थानो पर स्पष्ट किया जा चुका है।
और जव कर्ता-बुद्धि व कर्तव्य-बुद्धि विद्यमान है, तब कर्मोका लक्ष्य ईश्वरप्राप्ति रहना स्वभाविक है और जरूरी है, किसी न किसी लक्ष्यके विना कर्तव्य-बुद्धि हो नही सकती । ऐसी अवस्था में कर्ता व कर्तव्य-धुद्धिके रहते हुए वह समता-बुद्धि जिसको पाकर
और कुछ पानान,रहे (गी. अ. ६, श्लो. २२) और वह अभेददृष्टि, जिसको जानकर और जानना शेष न रहे (गी. अ. ७.
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