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[श्रात्मविलाम __ इस सिद्धान्त अनुसार प्रत्येक प्रवृत्तिका फल केवल निवृत्ति ही है। स्थूलादि तीनों शरीर और जाग्रहादि तीनों अवस्था भी निवृत्त होनेके लिए ही हैं। बाल, युवा व वृद्धावस्था निवृत्त होने के लिये हैं। क्षुधा-पिपामा, राग-द्वप और सुख-दुःखादि द्वन्द्व निवृत्त होने के लिये है। ममता के विषय धन-पुत्रादि सभी पदार्थ निवृन होनेके लिये हैं। दिन, रात, पन, मास, ऋतु, सम्वत व युगादि काल निवृत्त होनेक लिये हैं। ब्रह्मा व इन्द्रादि देवता
और मप्तऋपि इत्यादि मभी निवृत्त होनेके लिये हैं। मारांश, सम्पूर्ण देश, काल व वस्तु निवृत्त होने के लिये ही हैं। जायते, अस्ति, पद्धते, विपरिणमते, अपक्षीयते, विनश्यति इन पड़ विकारोसे युक्त यह संसार निवृत्त होने के लिये ही है। कहाँतक कहा जाय, अन्ततः पड विकार भी निवृत्त होनेके लिये ही हैं तथा जन्म-मरण व प्रवृत्ति-निवृत्ति भी निवृत्त होनेके लिये ही है । मारा संमार ही जब निवृत्तिके लिये सिद्ध हुआ और प्रवृत्ति निवृत्ति भी निवृत्ति के लिये सिद्ध हुई तो फिर कर्मप्रवृत्ति को अनादि मिद्ध करना कितना आश्चर्यजनक हो सकता है ? पाठक म्वयं ही इसपर ध्यान देगे। बाबा आम्रफल वृक्ष में प्रवृत्त होकर और पककर निवृत्त होनेके लिये है। इसी प्रकार प्रत्येक प्रवृत्तिका स्वभाविक स्रोत निवृत्तिकी ओर ही दौड़ रहा है। प्रकृतिके राज्यमे कोई भी ऐमा इष्टान्त नही मिलता जो स्थिर प्रवृत्ति के लिये ही मिद्ध होता हो, फिर ऐसा कथन करनेका माहस क्या किया गया. यह समझ नहीं आना। 'कर्मद्वारा प्रकृति की निवृत्तिमुग्वीनता' शीर्षकमे यह विषय इसी प्रन्थम स्पष्ट किया जा चुका है। ब्रह्मलीन श्रीस्वामी रामतीर्थजी के वचनानुसार कि 'समाष्टि ब्रह्माण्ड जिस नियमके अधीन चल रहा है, एक प्रेमीकी आँखसे एक आँसुकी यह गिरनेमे भी उसी. नियमका राज्य है।' इसी निवृत्तिमुम्ब देवीनियमके अनुसार