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साधारण धर्म ]
अर्जुनके हृदयमे जिमके निमित्तसे गीता अवतीर्ण हुई, अट्ठारह अक्षौहिणी सेनाकै बीचमें वही त्यागकी विद्युत् कड़क गई, जिसके प्रभावसे न जातीय-अभिमान रहा, न गाण्डीय-धनुषका गौरव
औरन भगवान्के ये वचन ही कुछ काम कर सके कि "हे अर्जुन! महारथी लोग तुझको वैराग्य करके नहीं, किन्तु भय करके ही रपसे उपराम हुआ जानेंगे, जिनके मध्य बहुमान्य होकर भी तु लघुताको प्राप्त होगा और तरी अविनाशी अपकीर्ति के गीत गाये जायेंगे । माननीय पुरुपोके लिये तो अपकीर्ति मरणसे भी अधिक है।" (श्र. २. शो. ३४, ३५) । वही अजुन यो भोक्तुं भक्ष्यमपीढ़ लोक' (अथान् इस हत्यारे राज्यकी अपेक्षा तो इस लोकमे भिक्षावृत्ति भोगना ही उत्तम है) के लिये तैयार होगया । इसी नियमके श्रावेशमे आकर उस वीर पुरुषको विपाद काक
आँसुओंकी नदी बहानी पड़ी । (गी. अ, १ श्लो. ४५.४६. व अ. २ श्रो. १) अरे अभागे दैवानियम | विचारे अजुनपर बुरी ठौर कुसमयमें निशाना मारा !! जरा तो देश, काल व पात्रका विचार किया कर, इतनी आजादी तो तेरे लिये भली नही !!!
आरिबर और कोई चारान देख उस वीर अर्जुनको सखाभावकी तिलाखली-ढे गुरुभावसे भगवानकी शरण लेनी पड़ी, 'कृपणता करके मेरा क्षत्रियस्वभाव नष्ट हो गया है , इसलिये मेरे लिये जो कल्याणकारी हो वह निश्चयस कहिये । मैं आपका शिष्य हूँ मुझे उपदेश कीजिये । (अ.२ श्लो. ७) । इस अवसरपर कठोर नियमने अर्जुनके चित्तको ऐसा तपाया कि भूमिका निष्कण्टक राज्य तो क्या, देवलोकका स्वामित्व भी उसके इन्द्रियदाहक शोक को दूर न कर सके (अ २ श्लो.) ! लोहा गरम हुए बिना सो चोटे सार्थक हो कैसे सकती हैं ? इस प्रकार 'न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनेक्रेऽमृतत्वमानशा अर्थात अमृतत्वकी प्राप्ति
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