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[आत्मविलोम न कर्मसे हो सकती है, न सन्तानसे और न धनमे, एकमात्र लागसे ही वह भोगा जा सकता है। जब मोलह आने अर्जुन पर यह कानून प्रभावित होचुका तब ही वह भगवानके उपदेशका पात्र हुथा। परन्तु अन्दर रजोगुण या हुअा रहनेके कारण उम गीताज्ञानप्राम अर्जुनको युद्धम ही जुडना पड़ा और जब युद्धद्वारादबाहुअा रजोगुण निवृत्त हो गया तब वह ज्ञानी-अर्जुन ही हिमालयकी ओर ऐसा झपटा कि वह गया। वह गया!! वह गया ।|| ज्ञानी-अर्जुन तब न तिलक महोदयके इस अनुभवकी साक्षी ही दे पाया कि प्रवृत्ति ही आदिसे है और स्थिर रहनेके लिये है और न समूचे तिलकमतको ही सार्थक कर पाया कि 'जानीको मरणपर्यन्त लोककार्य कर्तव्य है। जिसके लिये गीता अवतीर्ण हुई, वही स्वय जब निलकमतका विरोध करे तो हम किसी औरको क्या कहे ? अजी ज्ञानी-अर्जुनके लिये जय कि निष्कण्टक-राज्य प्राप्त होगया था और कोई विरोधी रहने पाया ही नहीं था, तब लोककार्य करनेका सुअवसर तो अव प्राप्त हुआ था। इससे पहिले तो न वह ज्ञानी हो था और न घरेलु झंझटोंने ही उसे दम लेने दिया था। परन्तु क्या करे? जब स्टीम ही खलास हो गई तय एजिन कैसे चले ? रजोगुण ही न रहा तब प्रवृत्ति कैसे हो ' अजी । यह देवी-विधान बड़ा कठोर है, निर्दयी है । इसको किसीपर दया नहीं आती। चाहे कोई लाख कहे, कठोर कहे, निर्दयी कहे, परन्तु यह सत्यकी स्टीम तो दवाये दवती ही नहीं।
नहीं छुपती छुपाये वू छुपाओ लाख पडदों में।
मजा पडता है जिस गुल पैरहनको बेहिजाबी का ॥ त्याग (अर्थात् परमात्मा) ही सत्य हैं ! त्याग ही सत्य है !! इसको कोई दवाना चाहे यह कब दव सकता है? इसके विपरीत जो