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[आत्मविलास
३६] वेदान्तका किसीसे द्वप नही, वेदान्त अपने सबको अवकाश देता है और सबका सदुपयोग करता है। वैद्यका तो काम यही है कि रोगीके अधिकारका भली-भाँति निर्णय करके उसको मार्ग पर डाल दे, फिर प्रकृति आप अपना काम करेगी और आप ही प्रवृत्तिसे निवृत्तिमें उठा ले जायगी। अजी । गुरुका काम तो इतना ही है कि शिष्यके चित्तको भली-भाँति टटोलकर जिधरसे पानीके निकासका मार्ग दीख पड़े, उधर पानीको निकलनेका मार्ग खोल दे फिर पानी आप ही अपनी गतिमे निचानकी ओर चलता हुआ समुद्रमे मिलकर अपने नाम-रूपको मिटा देगा। यथा नद्यः स्पन्दमानाः समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय । तथा विद्वान्नामरूपाद्विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ।।
(मुण्ड. उप ३, २,८) अर्थात् जिस प्रकार नदियाँ बहती हुई समुद्रमे लय होकर अपने नाम-रूपको मिटा देती हैं, इसी प्रकार विद्वान् नामरूप से छूटा हुआ परात्पर दिव्यपुरुष परमात्माको प्राप्त हो जाता है।
हाँ सिद्धान्त यह अवश्य है कि ज्ञनोपदेशसे पूर्व अधिकारीका हृदय तीव्रतर वैराग्यकी अग्निमें खूब तपा हुआ होना चाहिये। यदि संसारके प्रति थोड़ा-सा भी राग है तो उपदेश सफल होनेकी आशा नहीं की जा सकती । जिस प्रकार लोहा यदि ठडा है तो उसपर छोड़ा हुआ जल उसके अन्दर प्रवेश नहीं कर सकता, इधर-उधरको ढुलक जायगा और यदि वह तप कर लाल होगया है वो फिर क्या मजाल जो पानीकी एक बूंद भी इधर-उधर चली. जाय, पानीका लोहेसे स्पर्श हुआ कि झट गायब । इसी प्रकार अधिकारीका चित्त भी तपा हुआ हो तो गुरुके बचनोको ऐसा शोपण कर जायगा, जैसे हंस दूधको पानीमेसे। यह सिद्धान्त