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[आत्मविलास
३४] आस्तिक पुरुष उनके कथनका ऐसा भावार्थ निकालनेका साहस कर सकता है, तिलक महोदयके भावोद्गारका फल ऐसा भले ही हुआ करे। उन सन्यास-मार्गियोंके कथनका तात्पर्य तो यह हो सकता है कि “यह संसार मायामय है, एकरस कोई पदार्थ नहीं रह सकता। इस संसारमें असंख्य जीव हैं जिनकी कोई गिनती नहीं कर सकता, परन्तु सारे समाग्में ढूँढ देखिये, ऐसे कोई दो जीव नहीं मिलेंगे जो प्राकृतिक प्रकृत्तिमे एक जैसे हो । एक कारीगर किसी वस्तुका दस्तकार है और नित्य ही वह अपनी दस्तकारीका काम करता है। एक साधारण चटाई बनानेवालेको ही ले लीजिये, परन्तु अपने जीवनभरमें वह ऐसी दो चटाई कभी नहीं निर्माण कर सकता जिनकी सर्वांगमें समता हो सके। मायाके राज्यमे तो भेद स्वाभाविक ही है, इसी नियमके अनुसार जीव-जीवकी आकृति भिन्न-भिन्न है, प्रकृति मिन्नभिन्न है, रुचि भिन्न-भिन्न है, अधिकार भिन्न-भिन्न है, रोग भिन्नभिन्न है और औषधि भिन्न-भिन्न है। सारे संसारमें सत्त्व, रज व तम गुण तो नीन ही हैं, पर इन तीनोका परिवर्तन, मात्रा और परिमाण प्रत्येक प्राणीमें भिन्न-भिन्न है । इसीलिये प्रत्येक रोगीके लिये प्रोपविका भेन, मात्राभेद, अनुपानभेद और पथ्यभेट होना जरूरी है। जो वैद्य सभी रोगियोंपर एक ही जमालघोटा और वह भी एक ही मात्रामें वर्तता रहे, वह कभी सफल नहीं हो सकता और उसका अपने रोगियों के लिये भयङ्कर होना आवश्यक है।" उपयुक्त संन्यास-मागियोंकी दृष्टिसे भगवान एक ऐसे भयङ्कर वैद्य नहीं थे। उन्होंने अर्जुनके संस्कारोंका भली-भाँति निरीक्षण किया और जाना कि यद्यपि यह मीठी-मीठी बातें वैराग्यकी कर रहा है 'अ यो भोक्तुं भक्ष्यमपीह लोके' के गीत गा रहा है, परन्तु रजोगुण अभी इसके हृदयमे भरपूर है, वह