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साधारण धर्म ] 'ग्रहण (अर्थात् संसार) की सत्यताके गीत गा रहे हैं, वे मर मिटेंगे, कुचले जायेंगे और अन्ततः मरकर भी, 'राम-राम सत्य है ! राम-राम सत्य है !!" पुकारना ही पड़ेगा। परन्तु मरे हुए मुरदेकी पायुको घृतलेपनसे क्या लाभ ? जीते-जी ही पुकरो, जिससे मरना ही न पड़े।
सरांश, तिलक मतका तीसरा अङ्क कि 'प्रवृत्ति आदिसे है और स्थिर रहने के लिये हैं। किसी प्रकार अनुभवानुसारी नहीं।
अब हम तिलक-मतके चतुर्थ अङ्कपर पाते हैं। फुटकल तिलक मतके चतुर्थ ) संन्यास-मार्गियोंकी इस उक्तिको उद्देश्य श्रतका निराकरण करके कि 'गीतामें अर्जुनको चित्तशुद्धिके लिये कर्मका उपदेश दिया गया है, क्योकि उसका अधिकार कर्मका ही था, परन्तु सिद्धावस्थामे तो कर्मत्याग ही भगवानका मत है भगवान तिलक सुब्ध हो गये हैं और कहते हैं-"हां, इसका भावार्थ यह देख पड़ता है कि यदि भगवान कह देते, 'अर्जुन ! तू अज्ञानी है तो वह नचिकेताके समान पूर्ण ज्ञानका आग्रह करता, युद्ध न करता और इससे भगवान् का उद्देश्य विफल जाता। मानो अपने प्रिय भक्तको धोका देने के लिये गीताका उपदेश किया गया। इस प्रकार अपने मत का समर्थन करनेके लिये जो भगवान्को भी धोखा देनेका दोष लगाते है, उनसे तो कुछ वाद न करना ही अच्छा है।" .
'अपने प्रिय भक्तको धोखा देने के लिये गीताका उपदेश किया गया भगवान ऐसा न करते तो अर्जुन युद्ध न करता । और उनका उद्देश्य विफल जाता । ऐसा भावार्थ उन संन्यास
मार्गियोंका तो नहीं हो सकता, और न ही कोई विचारवान् ।
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