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[श्रात्म विलास
३८] फर्ता रहा न भोक्ता और न भोग्य-संसार ही उसकी दृष्टिमें शेष रहा । दूसरे भले ही अर्जुनमें यह सब उपाधियाँ आरोपण किया करें, परन्तु अर्जुन तो फिर इन मश्र उपाधियोंका साक्षी और इन सबसे दूर खड़ा था। जैसे इन्द्र-धनुपमे देखनेवाले भले ही विचित्र-विचित्र रंगोंको देखा करें, परन्तु वह तो अपनी दृष्टि में सब रंगोंसे रहित होता है। इमी प्रकार अर्जुन तो तव शरीरद्वारा सब कुछ करता हुआ भी अपने नाती-स्वरूपसे कुछ भी न करता था, बल्कि सर्वथा अकर्ता और असग था तथा शरीरद्वारा कुछ न करता हुआ भी अपनी सत्ता-स्फूर्तिद्वारा सब कर्ता-धर्ता वही था (गी. अ. ४-१८) । वास्तवमें गीताका प्रतिपाद्य विषय है तो बस इतना ही। इमस भिन्न प्रवृत्तिरूप निष्काम कर्मयोग नगीताका विषय है और न निवृत्तिरूप सांख्य । ये दोनों प्रवृत्ति (योग) व निवृत्ति (सांख्य) तो मार्ग है न कि उद्दष्ट स्थान ।
अब हम तिलक-भवके पाँचवें अपर पाते हैं। इस अङ्क तिलक-मतके पचम ) में हमारे लिये जो विचार कर्तव्य है, अलका निराकरण (वे ये हैं।
(अ) 'योग' शब्दका क्या अर्थ है ? और 'योग' शब्द गीतामे
निष्काम कर्मके अर्थमें ही प्रयुक्त हुआ है अथवा अन्य
अर्थमें भी ? तथा मुख्य अर्थ 'योग' शब्दका क्या है ? (आ) कर्म किसको कहते हैं। (६) भिक्षावृत्ति, जिसको तिलक महोदयने निर्लज्जतामूला
कर्म वर्णन किया है, क्या यह उनका विचार धर्मव मर्यादाको स्थिर रखनेवाला है ? और क्या वह वस्तुर निर्लज्जतामूलक कर्म है ? ..