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[आत्मविलास
अर्थ-जिस प्रकार पक्षी सूत्ररूप पेटीसे बँधा हुआ दिशा-दिशा मे भ्रमण कर अन्यत्र सहारा न पाकर अपने बन्धनक ही श्राश्रय स्थित होता है, इसी प्रकार हे सौम्य ! वह मनोपाधिक श्रात्मा (जीव) जाग्रत-स्वप्न दिशाओमे भ्रमण करता हुआ अन्यत्र विश्राम न पाकर सुषुप्ति उपाधिवाले प्राण (पान) के ही प्राथय स्थित होता है। क्योंकि हे सौम्य ! जीव प्राण (ब्राह्म) आश्रयवाला ही है। अर्थात सुपुति-अवस्थामे प्राण (ब्रह्म) में देह, इन्द्रिय, मन व बुद्धि सवका ही लय हो जाता है। उस समय मन सम्पूर्ण संस्काररूपी सामग्रीको लेकर उसीमे लीन रहता है।
जीवकी इन अवस्थात्रयके अनुभव-प्रमाणसं अन्य किसी प्रमाणकी अपेक्षा धिना, उपयुक प्रकृति व विकृतिका स्वरूप भली-भाँति प्रमाणित हो जाता है। इससे सिद्ध हुआ कि प्रवृत्ति का न ब्रह्माण्ड-प्रकृतिके वास्तव स्वरूपमे ही प्रवेश है और न जीव-प्रकृति सुपप्ति-अवस्थामे, केवल प्रकृतिको विकृति-अवस्था
और जीवकी जाग्रत्स्वा अवस्थामें ही भोगरूप निमित्त करके प्रवृत्तिका क्षोभ उत्पन्न होता है और भोगरूप निमित्तको भुगाकर फिर त्रिगुणोकी साम्यावस्थारूप प्रकृति अर्थात् सुपुमि अवस्थामें निवृत्त हो जाना ही उस प्रवृत्तिका उद्देश्य है। यदि प्रवृत्ति आदिसे होती तो ब्रह्माण्ड-प्रकृति और जीव-प्रकृतिक वास्तव स्वरूपमें भी उसका पता मिलना चाहिये था, परन्तु ऐसा तो नहीं देखा जाता। इस लिये यह सिद्ध हुआ कि प्रवृत्ति नित्य नहीं बल्कि नैमिचिक है।
जिस प्रवृत्तिको आदिसे नित्य बतलाया जा रहा है, अब देखना यह है कि वह प्रकृतिके किस गुणका परिणाम है। इस विषयकी जिज्ञासा होने पर गीता स्वय हमको रजोगुणके लक्षण वर्णन करते हुए य बतलाती है: