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माधारण धर्म ]
म्वानुमवसे इस विषयकी साक्षी देता है कि वहाँ सुषुप्ति अवस्था में कुछ भी नहीं था, केवल आनन्द ही आनन्द था, वहाँ न सूर्य या, न पृथ्वी आदि पञ्चभूत और न उनका कार्यरूप ब्रह्माण्ड । वहाँ न राजा राजा रहता है, न चाण्डाल चाण्डाल ही रहता है इत्यादि। यथा श्रुतिः
अत्र पिताऽपिता भवति मातामाता लोका अलोका देवा अदेवा वेदा अवेदा अत्र स्तेनोऽस्तेनो भवति भ्रूणहाडभ्रणहा चाण्डालोऽचाएडालः पोल्कसोऽपोल्कसः श्रमणोऽश्रमणः तापसोऽतापसः। (वृहदारण्यकोपनिषत् ४. ३. २३) __ आशय यह कि इस सुपुप्तिअवस्थामें सब भेदोका अभाव होकर केवल सबका अभेद ही शेप रहता है । इस अवस्थामें न माता माता रहती है और न पिता पितारूपसे शेष रहता है । यहाँ राजा राजा नहीं रहता और न देवता देवता ही रहते हैं। चाण्डाल चाण्डाल नहीं रहता और न हत्यारा हत्यारा ही रहता है। बल्कि इस अवस्थामें तो सबका ही अभेद रहता है। हाँ, जीवके कर्मसंस्कार जब फलोन्मुख होते हैं, तब उस निमित्त से यह प्राज्ञरूपी जीव सुषुप्तिअवस्थासे निकल कर स्वप्न व जाग्रतमें आता है और फलभोगरूप निमिचके निवृत्त होनेपर फिर उस सुपुप्तिअवस्थामें ही विश्राम करता है; यथा श्रुतिः
'स यथा शकुनिः सूत्रण प्रवृद्धो दिशं दिशं पतित्वा अन्यत्रायवनमलब्ध्वा बन्धनमेवोपश्रयते, एवमेव खलु सौम्य तन्मनो दिशं दिशं पवित्वान्यत्रायतनमलब्ध्वा प्राणमेवोपत्रयते, पाणवन्धनं हि सौम्य मन इति । (छां. उप. अ. ६ स्वं.)