________________
साधारण धर्म] झानामृतेन तृप्तस्य कृतकृत्यस्य योगिनः । नवाऽस्ति किंचित्कर्तव्यमस्ति चेन्न स तत्त्वविता (अष्टावक्र गीता)
अर्थान् ज्ञानरूपी अमृत करके तृप्न व कृतकृत्य योगीके लिये "किञ्चित भी कर्तव्य नहीं रहता । यदि कर्तव्य शेप है तो वह ज्ञानी नहीं।
इससे सिद्ध हुआ कि अज्ञानके विना कर्तव्य-बुद्धि नहीं होती। अतः जबतक कर्तव्य-बुद्धि है तबतक अज्ञान है। ।
मारांश, तिलक महोदयका यह मत कि.
(१) ज्ञानीके लिये मृत्युपर्यन्त निष्काम-बुद्धिसे लोककार्य । कर्तव्य है।
(२) बानोत्तर 'सांख्य' व 'योग' दो भिन्न-भिन्न मार्ग हैं। (३) 'सांख्य' से 'योग' श्रेष्ठ है। (४) अथवा मृत्युके पश्चात् ज्ञानीको मोक्ष मिलता है।
सर्वथा असङ्गत है। ऐसा न युक्तिमे ही सिद्ध होता है और न प्रमाणसे । बानी नित्य-मुक्त है, जीता हुआ ही जीवन्मुक्त है, फिर उसके लिये एक अथवा दो मार्ग कहाँ १ और कर्तव्य कहाँ ?
अव तिलक-मतके तीसरे अङ्कपर कि 'यद्यपि प्रवृत्ति व तिलक-मतके तृतीय निवृत्ति दोनों मार्ग प्राचीन हैं, तथापि अङ्गका निराकरण । ( प्रवृत्तिरूप कर्मकाण्ड ही श्रादिसे है और स्थिर रहनेके लिये है, निवृत्ति-मार्ग पीछेसे उसमें धीरे-धीरे प्रवेश होने लगा'-विचार किया जाता है। ___ 'प्रवृत्ति-मार्ग आदिसे है। इसपर विचार करनेके लिये हमें मूलको ही पकड़ना चाहिये । सबकी मूल तथा सबका आदि