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[आत्मविलास
२४] जीतेजी ही मुक्त हैं), क्योंकि ब्रह्म निर्दोष घ सम है और उनकी उस ब्रह्ममें ही अभिन्न स्थति है।
वास्तवमें घात तो है यह कि वेदान्तमतमें 'परमात्माकी प्राप्ति और अज्ञानरूप कारणसहित ससारकी निवृत्ति' मोक्षका स्वरूप है। ब्रह्मज्ञानका फल परमात्माकी प्राप्ति नहीं, क्योंकि वह तो हमारा आत्मा होनेसे (जैसा पीछे 'दशम' के टान्तसे स्पष्ट किया गया है) नित्य ही प्राप्त है । तथा ससारकी निवृत्ति भी ज्ञानका फल नहीं, क्योकि रज्जुमें सर्पके समान ब्रह्ममें संसार कदाचित् हुआ ही नहीं, नित्य ही निवृत्त है । ऐसी अवस्थामें ब्रह्म-ज्ञानका फल है तो केवल यह कि अज्ञान करके जीवको ब्रह्मप्राप्तिरूप जो कर्तव्य बना हुआ था, ज्ञान उस अज्ञानको दूर करके कर्तव्यजन्य क्लेशसे छुटकारा दिला दे, यही ज्ञानका साक्षात् फल हो सकता है, अन्य कुछ नहीं। जैसे किसी मनुष्य की कताईमें कङ्कण हो, वह कलाईसे ऊपर चढ़ जाय और इससे उस मनुष्यको यह भ्रम हो जाय कि मेरा कङ्कण खोया गया ! मेरा कङ्कण खोया गया तब इस अज्ञानके साथ ही ककणकी प्राप्तिरूप कर्तव्य व कर्तव्यजन्य क्लेश उसके हृदयमें भर जाता है । परन्तु जब उसको किसी पुरुपके बोध करानेसे यह ज्ञान हो जाय कि कङ्कण मेरे हाथमें ही है, तब उसके कङ्कणका अज्ञान
और कङ्कणप्राप्तिरूप कर्तव्य दोनों ही निवृत्त हो जाते हैं । कक्षणज्ञानका फल कङ्कणकी प्राप्ति नहीं, वह तो पहले भी प्राप्त था, किन्तु कङ्कणप्राप्तिरूप कर्तव्यसे मुक्त कर देना, यही कङ्कण-ज्ञानका साक्षात् फल है । इसी प्रकार 'नित्यप्राप्त ब्रह्मकी प्राप्ति' ब्रह्मज्ञान का फल नहीं, किन्तु अज्ञानजन्य ब्रह्मप्राप्तिरूप कर्तव्यकी निवृत्ति ही ब्रह्मज्ञानका साक्षात् फल है । इसी लिये कहा गया है: