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[आत्मविलास
मोक्षस्य न हि वासोऽस्ति ग्रामान्तरमेव वा ।
अज्ञानहृदयग्रन्थिश्छेदो मोक्ष इति स्मृतः ॥ 'अर्थः- मोक्ष किसी स्थानविशेपमे नहीं बसता है, न किमी अन्य प्राममें ही उसका निवास है, केवल हृदयको अज्ञानरूप प्रन्थिका छेदन हो जाना ही मोक्ष कहा गया है।
जिस प्रकार रज्जुमें रज्जुके अज्ञान करके जो सर्पकी प्रतीति, वह न तो यज्ञादिको अथवा मत्रादिकोसे ही निवृत्त हो सकती है और न लप्टका प्रहारादिकोंसे । उस. सर्पको निवृत्त करनेके लिये तो केवल दीपक ही चाहिये । दीपकका प्रयोजन भी इतना ही है कि वह रज्जुके आश्रय जो अज्ञान, अज्ञान का कार्य जो सर्प और तत्प्रतीतिजन्य जो भय-कम्पनादि, इन सब अज्ञान-सामग्रीको दूर कर देता है। रज्जुकी प्रामि दीपक का प्रयोजन नहीं, यह तो पहले भी प्राप्त ही थी, केवल अज्ञानरूप भ्रम करके अप्राप्तके समान भान होची थी। ठीक, इसी प्रकार आत्मामें आत्माके अज्ञानसे जो प्रतीत हुश्रा जगत्, तज्जन्य जन्म-मरण तथा भय-शोकादि त्रिविधताप, उनकी निवृत्ति में यज्ञ-दान-तपादिझी अपेक्षा नहीं, केवल दीपकरूप ज्ञान ही अपेक्षित है। ज्ञानको प्रयोजनं भी श्रात्माकी प्राप्ति नहीं, क्योंकि यह तो नित्य ही प्राप्त है। ज्ञानका प्रयोजन भी इतना ही है कि वह दीपकके समान आत्माके श्राश्रय जो अज्ञान, उस अज्ञानका कार्य जगत् और तत्सम्बन्धी भय-शोकादि, उनको दूर कर दे। ।
भ्रान्त्या प्रतीतः संसारो विवेकान्नतु कर्मभिः । न हि रज्जूरंगारोपो घण्टाघोषानिवर्तते ।।