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[आत्मविलास नहीं है। 'कर्मरूपी नौकाद्वारा तू सब पापोसे भली प्रकार तर जायगा चाहे तु पापीसे पापी भी क्यों न हो', 'कर्मरूप अमि सब कोको जलाकर भस्म कर देती है, 'सत्र यज्ञोंसे कर्म-यज्ञ श्रेष्ठ है' इत्यादि । परन्तु कर्मकै माथ ऐसा कहीं भी प्रयोग गीतामे नहीं किया गया, इससे स्पष्ट है कि भगवान्को कर्मकी अपेक्षा ज्ञान ही महत्त्वरूप मन्तव्य है।
तिलक-मतमें कर्म ओर ज्ञानको मोक्षप्राप्तिम वैकल्पिक स्वतंत्र साधन माना है। इस मतके अनुसार कर्मद्वारा मोक्षप्राप्तिम जो प्रवृत्त हुए हैं, उनके लिये ज्ञान सर्वथा निरर्थक व निरुपयोगी सिद्ध होता है। उनकी दृष्टिसे तो मानो एक नपुसकके समान संसारमें ज्ञानका जन्म निष्फल ही है। परन्तु वेदान्त मोक्षके लिये कर्मको निरुपयोगी नही मानता, किंतु वह तो सभी साधनों का अधिकारानुसार सदुपयोग करता है और कर्मको भी मोक्षप्राप्ति की साधन-सामग्रीमें उपयोगी ठहराता है। जिस प्रकार तुधातकी सुधा-निवृत्तिमे यद्यपि रोटी ही साक्षात् उपयोगी है, तथापि आटा, जल, अग्नि आदिक भी परम्परा करके सुधानिवृत्तिमें सहायक हैं ही। आटा, अग्नि, जलादिका उपयोग रोटीकी तैयारीमें, और रोटीका उपयोग नुधानिवृत्तिमें है। ठीक, इसी प्रकार फलाशा व स्वार्थरहित कर्मप्रवृत्ति, जो ईश्वरार्पण-बुद्धिसे कर्तव्य जान लोकसेवादिके उद्देश्यसे की जाय, जिसकी चर्चा पीछे निष्कामजिज्ञासुके प्रसगमें की जा चुकी है, उसका फल अन्तःकरणको निर्मलता है और निर्मल अन्तःकरणमे ही ज्ञानरूप 'बीज
आरोपणं करके मोक्षरूप फल पकाया जा सकता है। जिस प्रकार मलिन वस्त्रमें दिया हुआ केशरका रंग, अथवा ऊपर भूमिमे डाला हुआ बीज फलका हेतु नहीं होता, उसी प्रकार - स्वार्थपरायण सांसारिक राग-द्वेषो मे फंसा हुआ अन्तकिरण