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साधारण धर्म] रहा, फिर बीचमें ही कर्तव्य कहाँने निकल पड़ा ? जनक तो अपने निश्चयमें संसाररूपी तरङ्गोंमें अपना विलास कर रहा है
और अपने स्वरूपमे कुछ होता नहीं देखता, दूसरे अपनी मंदष्टि से उसमें 'कर्ता' व 'कर्तव्य' की भावना पड़े किया करें।
तिलक महोयने गीतारहस्य पृ० ३२४.३२५ पर ज्ञानीके लक्षणों में मुंह खोला है तो यह-"अहकार छूटनेसे मैं मेराभाषा नहीं रहती इसलिये निर्मम ज्ञानी होता है, उसके बदलेमें 'जगत् व जगत्का' अथवा भक्ति-पक्षमे 'ईश्वर व ईश्वरका' यह शब्द आते हैं। वासना छूटनेसे ज्ञानीका यह भाव रहता है कि संसारके सब व्यवहार ईश्वरके हैं और ईश्वरने उनके करनेके लिये ही हमें रचा है।"
पाठक जरा ध्यान दें! उपयुक्त जनकके अनुभव तथा इस तिलक-अनुभवमें कैसा आकाश-पाताल जैसा अन्तर है ? अजी! जव अज्ञानजन्य अहङ्काररूप 'अहं ही ज्ञानद्वारा समूल लुप्त हो गया, तब 'मम' कहाँ रह जायगा ? अहं-त्वंरूप संसार तो बहकारका ही परिणाम है, जब अज्ञानरूप मूल ही न रही तो वृक्ष कहाँ ? यह ज्ञान खाली ढकोसला तो नहीं, कोरी कल्पना तो नहीं, जैसे शतरञ्जके खेलमें वजीर-वादशाहकी कल्पना कर ली जाती है। नहीं, नहीं, यह आत्म-ज्ञान तो नकद है उधार नहीं, सचमुच ज्ञानीकी दृष्टिमें संसार इसी प्रकार शून्य हो जाता है जैसा जनकने ऊपर वर्णन किया । बल्कि स्वयं भगवान् भी गीतामें ऐसा ही वर्णन करते हैं:या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागति संयमी। यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः । (अ० २-६९)
अर्थ.-जो आत्मतत्त्व सब भूतोंके लिये रात्रिके समान अन्धकारमय है अर्थात् अज्ञात है, उसमें संयमी ज्ञानीपुरुष