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[आत्मविलास
१८] अर्थात श्रीकृष्ण भोगी और शुकदेवजी त्यागी हुए, जनक और रामने राज्य किया तथा वसिष्ठजी कर्ममें प्रवृत रहे । इस प्रकार यद्यपि इन ज्ञानियों का व्यवहार विलक्षण रहा तथापि ज्ञान-ष्टिसे ये सब समान ही हुए हैं। अर्थात् ये सभी ग्रहण-त्याग विधि-निषेध और प्रवृत्ति-निवृत्तिसे रहित कर्तव्यमुक्त ही हुए है। ___ अजी | कर्तव्यरूप विधि तो अज्ञानदशामें संसाररोगकी विद्यमानतामें ही थी, रोग निवृत्त होनेपर श्रोपधिका क्या प्रयोजन ? नदीपार होनेपर नौकासे क्या प्रयोजन ? 'उत्तीणे तु परे पारे नौकायाः किं प्रयोजनम् ।' साख्य व योग आदि तो सीढ़ियाँ थी, छतपर पहुँच गये फिर सीढ़ियोसे क्या प्रयोजन ? ज्ञानियों के लिये प्रवृत्ति-निवृचि मार्गका विधान करके प्रवृत्ति-मार्गी ज्ञानियोंमें जिस जनकको तिलक महोदयने शिरोमणि रखा है, जरा पाठक उनका अनुभव भी सुन लें:मय्यनन्तमहाम्भोधौ जगद्वीचिः स्वभावतः । उदेतु वास्तमायातु न मे वृद्धिन वा क्षतिः ।। अहो जनसमूहेऽपि न द्वैतं पश्यतो मम । अरण्यमिव संवृत्तं क रति करवाण्यहम् ॥ (अष्टावक्र-गीता) ___ अर्थः-मेरे अनन्त समुद्रस्वरूपमें संसाररूपी तरङ्ग उत्पन्न • हो चाहे अस्त हो, परन्तु मेरे ब्रह्मस्वरूपमें न कुछ बढ़ना है न
घटना । आश्चर्य है कि जनसमुदायमें भी (तरङ्गोंमें जल-दृष्टिकी परिपक्वता करके ) मुझे द्वैत कुछ भान नहीं होता, (बल्कि सारा संसार) मेरी दृष्टिमें धनके समान शन्य हो गया है। ऐसी अवस्थामें मैं कहाँ रति धारूँ।
थोड़ा ध्यान दीनिये, जनककी दृष्टिमें तो सारा संसार ही - वन हो गया है । जब संसार ही नहीं रहा और न जनक कर्ता ही