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নামাযে ঘর্ম } ज्ञानरूपी रंग अथवा वीजको सार्थक नहीं कर सकता। परन्तु पत्र निर्मल होने पर भी यदि उसमे मावुन दिये ही जाएँ, अथवा भूमिमें खाद डाल ही चले जाएँ और बस न करें, तो ऐसी अवस्था मै घह सब चेष्टा किमी फलका हेतु न होकर उल्टा हानिकारक ही सिद्ध होगी, प्रकृतिक राज्यमे मा ही नियम है । प्रत्येक फलउपार्जनके लिये अधिकार तथा योग्य मात्राका विचार अत्यन्त
आवश्यक है। वैध लोग भी अपने रोगियोंके लिये अधिकार व मानाका पूर्ण ध्यान रखते हैं। सारांश, अमृत भी यदि अधिक मात्रामें सेवन किया जाय तो विपल्प सिद्ध हो सकता है ! इसी प्रकार वेदान्तका कथन है कि मोक्षप्राप्तिम कर्मकी सहायता है जरूर, परन्तु अन्तःकरणकी निर्मलता सम्पादन हो चुकने पर मोक्षप्राप्तिके लिये तब कर्मका त्याग भी उतना ही जरूरी है। रजोगुणसे कर्म और सत्वगुणसे ज्ञानकी उत्पत्ति होती है (गी. अ. १४ श्लो. १७)। जब चित्त रजोगुणसे पूर्ण है तब सत्त्वगुणीज्ञानको कैसे धार सकता है ? परन्तु निष्काम-कर्मद्वारा जब हृदय रजोगुणसे निर्मल हो चुका और सत्त्वगुण फूट निकला, फिर तो केवल ज्ञानरूपी बीज ही हृदय क्षेत्रमे आरोपण करनेकी जरूरत है। यदि फिर भी बाह्य कर्मको ही हमने अपना उद्दश्य बनाए रखा और अन्तःकरण निर्मल होने पर भी उसका' चकर चालू रखा गया, नो उद्बुध हुआ सत्वगुण अवश्य देव जायगा और यह हमारे लिय एक प्रकारसे अधःपतन होगा, क्योंकि ज्ञान व कर्म परस्पर विरोधी है, एक कालमें दोनो नहीं रह सकते । निष्काम-कर्म और उपासनाका फल इतना ही है। कि वे ईश्वर-प्रीतिक उद्देश्यक सहारेसे सासारिक रागद्वष
और स्वार्थादि दोपोंको निवृत्त कर अन्तःकरणको निर्मल कर दें। तब उस निर्मल अन्तःकरणमे ही सारासा-विवेक उत्पन्न