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[ आत्मविलास
८] ईरानी और भी बढी। सारांश, इसी प्रकार दसोंमेस प्रत्येकने गिनती की, प्रत्येक ही अपनेको न गिन शेप नो की गिनती करता गया और उनकी हैरानी अधिकाधिक बढती गई । जव दसों गिनती कर चुके, तब सचमुच एक मित्रको डूबा जान सबके सब उच स्वरसे विलाप करने लगे। एक महापुरुषको, जो एकान्त बैठा हुआ यह सब कौतुक देख रहा था, इस विचित्र कथासे बड़ा अानन्द मिला । अन्तत उनको दया आई. वह उठ कर उनके पास प्राया और उनसे उनके रुदनका कारण पूछा । उन्होंने अपना सब वृत्तान्त ज्यूँका त्यू उस महापुरुषको कह सुनाया और रुदन करने लगे। सब कथा सुनकर महापुरुषने उनको फिर गिनती करने को कहा। इस पर उनमसे एकने फिर गिनती की और पूर्ववन् नौ की गिनती करके मूर्तियन् अचल खडा होगया । इस पर महापुरुष ने कहा "घबराओ मत, दसयाँ है।" महापुरुषके इस बचनसे उन्हें कुछ शान्ति मिली और गिनती करनेवालेने बेचैनीसे फिर पूछा, "दसवाँ कहाँ है ?” महापुरुपने तत्काल गिनती करने वालेका हाथ पकड कर कहा "दसवाँ तू है।" महापुरुषके इस बचन पर सबको बडा हर्ष हुआ और सब दुःख-शोक दूर हो गये।
__इस वार्ताको सुनकर पाठकगण हँसेंगे। परन्तु हंसिये नहीं, यही वेदान्तका सिद्धान्त है । यही पूर्ण सत्य है ! जिस प्रकार 'दसवाँ' जो उनका अपना-आप ही था, उसकी प्राप्तिके लिये केवल ज्ञान ही एकमात्र साधन हो सकता था, अन्य कोई उपाय नहीं ! अन्य कुछ नहीं ! ज्ञानका साधन छोड़ 'दशम' की प्राप्ति के लिये यदि वे स्वयं सबके सब नदी में खूब गोता लगाते तथा देश-देशान्तरसे अच्छे-अच्छे चतुर तैराकोंका आह्वान करते तो'दशम' की प्राप्ति कठिनसे कठिनतर होती जाती और अन्ततः