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प्रात्म-विलास
(द्वितीय खण्ड) प्रवृत्तिपक्षमें तिलकमत-निराकरण
दिलक महोदयन अपने अन्य गीता-रहस्यके संन्यास-कर्म योग तिलकमत-निरूपण नामक एकादश प्रकरणमें प्रवृत्ति-मार्गको
| मुख्य रखकर निवृत्ति-मार का खण्डन किया है। इस स्थल पर उस मतका कुछ विचार कर्तव्य है। उस मतका सार संक्षेप में नीचे अकवार दिखाया जाता है। फिर प्रत्येक अङ्कपर सारमाही दृष्टिमे सूक्ष्म विचार किया जायगा। इस प्रसंगमें तिलकमतके अनुसार निष्काम-बुद्धिसे कम करने को 'योग' और स्वरूपसे कम त्यागको 'सांख्य' (संन्यास) शन्दोमे प्रयोग किया गया है। उनका मत यह है:
(१) मोक्ष 'सांख्य' (ज्ञान) से ही नहीं होता, किन्तु 'योग' (निष्काम-कम) से भी होता है। अर्थात् मोक्षप्राप्तिमे 'ज्ञान' तथा 'कर्म' दोनों विकल्पसे स्वतन्त्र साधन हैं, ऐकको दूसरेकी अपेक्षा नहीं है। (गीता-रहस्य पू. ३०५, ३०६) १ श्राशय यह कि 'ज्ञान' व 'कम' का सम-समुच्चय है, क्रम-समुच्चय ४ नहीं।
झान व कर्म दोनों मोक्षप्राप्तिमें स्वतन्त्र साधन है, इस मतको सम-समुच्चय कहते हैं। .
x पहले कर्म पीछे शान, दोनों क्रमसे मोक्षमें उपयोगी है, इसको क्रम-समुच्चय कहा जाता है।
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