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साधारण धम]
देना चाहिये" (योग. वा. मुमुनुप्रकरण मर्ग १८) तिलक महोदयने अपने इस निश्चयमे कि 'जान' तथा 'कम' मोक्षप्रासिम दोनो विकल्पसं स्वतन्त्र माधन है, चाहे ज्ञानसे मोक्ष प्राप्त कर ले चाहे कम मे, कोई प्रवल युक्ति नही टी, किन्तु गीताके कुछ श्लोकोक
आधार पर उनका यथार्थ मर्म न जान, अपने मतकी पुष्टि की है। इसके विपरीत पंढ चेदान्तके अन्य अनेकों प्रबल प्रमाण, जो उनके मतके विरोधी हैं और ऊँची भुजा उठाकर पुकार रहे है-- 'ऋते नानान्न मुक्ति', 'ज्ञानादेवतु कैवल्यम्' इत्यादि, उन प्रमाणोके विरोधका परिहार उन्होंने अपनी किसी युक्तिसे नहीं किया। इसके साथ ही यह किमी प्रकार भी नहीं कहा जा सकता
और न तिलक महोदय जैसे श्रान्तिक पुरुपको ही स्वीकार हो सकता है कि गीता प्रकृतिविरुद्ध अथवा वंदविरुद्ध उपदेश देनेके लिये प्रवृत्त हुई है । वदान्तके अनेक नैष्कयसिद्धि आदि संस्कृत अन्य तथा विचारसागरादि भाषा ग्रन्थोंमें अनेक प्रबल युक्तियोंसे यह विपय प्रतिपादन किया गया है कि मोन केवल ज्ञानसे ही सम्भव है, कम से नहीं; जिनके सम्मुख तिलक महोदय की कोमल युक्तियाँ क्षणभरके लिये भी स्थिर नही रह सकती । इस स्थल पर उनका पूर्ण रूपसे उल्लेख न कर केवल दिग्दर्शनमात्र कराया जाता है।
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यह वार्ता तो एक बालककी बुद्धिमे भी आरूढ हो सकती है कि मोक्षप्राप्तिरूप साध्य तो एक, और उसके साधन दो, वे भी . परस्पर विरोधी, दोनो समकानीन, स्वतन्त्र और विकल्पसे । अर्थान् एक ही अवस्थामे चाहे ज्ञानसं मोक्ष प्राप्त करले चाहे कम से, यह बात साधककी रुचि पर छोड़ दी गई है कि वह इन दोनों मे मे कोई एक मार्ग पसन्द करले और स्वतन्त्र वही मार्ग उस मोक्ष प्राप्त करानेमें समर्थ होगा। यह हो कैसे सकता है ? कर्म