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[आत्मविलास यह था कि यथाशास्त्र गृहस्थ चलानयोग्य लडको सियान हो जानेपर बुढ़ापेकी निरर्थक आशाओंसे लड़कोकी उमङ्गोंके आड़े न श्रा, निरा मोक्षपरायण हो मनुष्य स्वयं अानन्दपूर्वक संसारस निवृत्त हो जाय । (गी. र. पृ. ३३६, ३३७, ३३८)
(E) गीताके प्रत्येक अध्यायकी समाप्तिमे 'श्रीमद्भगवद्गीता सूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्र' ऐसा सकल्प है । इसका अर्थ यह है कि 'संन्यास और योग' दो मागोंमें 'योग' श्रेष्ठ है और यही गीताका प्रतिपाद्य विषय है। (गी. र. पृ. ३५१)
उक्त मतका निराकरण अब सक्षेपसे उपयुक्त मत पर अलग-अलग विचार किया। तिलकमतके प्रथम | जाता है। बुद्धिमान् पाठक स्वयं सार-असार अकका निराकरण का विचार कर लेंगे । किमी कविका कथन है कि सचाई एक मेसी सुन्दरी है कि उसको आलिगन करनक लिये उसे जान लेना ही काफी है।
शाखोंका श्राशय जानने के लिये युक्ति में प्रमाण दोनोकी संगतिका होना जरूरी है। अर्थात् शाखप्रमाण व युक्ति दोनोको संगतिसे जो आशय निर्धारित हो, वही शास्त्रोका निर्दोष प्राशय जानना चाहिये । परन्तु जो श्राशय केवल प्रमाणके आधार पर निर्धारित किया गया है और युक्सिको नही सहार सकता, वह
आशय यथार्थ नहीं किन्नु भ्रममूलक है। योगवाशिष्ठके मुमुनु प्रकरणमें भगवान वसिष्ठ भगवान रामचन्द्रके प्रति कहते है, "हे राम! युक्तिसहित वचन चाहे बालकका भी हो उसे अंगीफार करना चाहिये और युक्तिविरुद्ध वचन चाहे ब्रह्माका भी हो उसे अंगीकार न करके सूखे तृणके समान परित्याग कर