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आत्मविलास]
। २५२ रहे थे और कॉटेके समान वेदना कर रहे थे, हे निर्मल-स्वरूप! तेरे आगमनसे ये सभी शान्त हो गये । हम हृदयसे तेरा स्वागत करते हैं, खुले दिलसे तुमको शुभागमन देते हैं और सभी द्वार तुझ प्रिय अतिथिके लिये खोलते हैं। हमारे हृदयोंमें तेरा स्वराज्य हो, ऑखोंमें तेरा प्रकाश हो, हाथ-पाँव पर तेरा शासन हो और रक्तमें तेरा सञ्चार हो । उदारता, निर्भयता, शम और सन्तोप का तू भण्डार है, शान्तिकी तू मधुर बेलि है, जिससे मैत्री, करुणा, मुदिता व उपेक्षा श्रादि शुभगुण फलते-फूलते हैं।
वैराग्य चार प्रकार का है:
(1) यतमानसज्ञा वेगग्य राग-द्वेपादि मल जो चित्तमें रहते हैं उन्हींसे इन्द्रियोंकी प्रवृत्ति विपयोंमें होती है। अर्थात् इन्द्रियोंको विषयोंमे प्रवृत्त करनेवाले वे चितस्थ राग-द्वपादि विकार ही हेतु हैं। 'वे रागउपादि मेरी इन्द्रियोको विपयोमे प्रवृत्त न करें ऐसा विचार उन राग-द्वेषादि मलको धोनेके लिये प्रारम्भ करना 'यतमानसंज्ञा' वैराग्य कहा जाता है।
(२) न्यतिरेकसज्ञा वैराग्य 'राग-द्वेषादि मल धोनेका प्रयत्न करने पर मेरे कितने मल पक गये हैं और कितने शेष रहते हैं। ऐसा विवेक 'व्यतिरेकसंज्ञा' वैराग्य कहलाता है।
(३) एकेन्द्रीयसंज्ञा वैराग्य 'अव राग-द्वेप मेरी इन्द्रियोंको विषयों में प्रवृत्त नहीं करते, ऐसे उत्सुकतामात्रसे अर्थात् ऐसे चावसे मनमें किश्चित् राग-द्वेष
1. सुखको देखकर चित्त प्रसव होना। २. दुखीको देख हृदय द्रवीभूत होना । ३. पुण्यारमाको देख मनमें प्रफुल्लित होना । ४ तथा पापारमाके प्रति दगुजर करना । उसम जिज्ञासुके ये स्वामाविक लक्षण