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THEHERITERATE
[साधारण धर्म चाहिये । एक स्थानपर बैठे ही सरेगा कैसे ? हॉ, ठीक एक स्थानपर बैठने कौन देगा ? यह तो प्रकृतिका अटल कानून है और हम 'पुण्य - पापकी व्याख्या में प्र० ख० पृ. ४०-४३ पर विस्तारसे इमका सिद्धान्त कर आये हैं कि ईश्वरकी नीति नहीं चाहती कि अपने अन्तिम साध्यको प्राप्त किये विना ही हम किसी एक स्थलको रोके बैठे रहें, यदि हम आगे बढ़नेसे इन्कार करते हैं तब हमको अवश्य धक्का खाकर पीछे हटना पड़ेगा। जैसे एक घोड़ा अपने वेगसे दौड़ा जा रहा है, यदि हम उसको एकदम रोके तो उसको अपने वेगको सहारने के लिये अवश्य पीछे हटना पड़ेगा वह उसी स्थलपर खड़ा नहीं रह सकता। इसी सिद्धान्त के अनुसार इन महाशयोंको भी धक्का खाकर':पोछे हटना पड़ता है, जिसका फल यह होता है कि दोप-दृष्टि उनमें घर कर बैठती है। चाहिये. तो था अपने दोष देखन, परन्तु अपने दोप तो तभी देखे जा सकते थे जब वैराग्यकी अग्नि अपने भीतर प्रज्वलित होती और अन्तर दृष्टि खुलती । इसके विपरीत बाह्य दृष्टि होनेके कारण उन महापुरुपोंके जिनके साथ सत्संग होता है, दोष-दर्शन किये जाते हैं। इस प्रकार ज्ञानीको अज्ञानी व अज्ञानीको ज्ञानी बनाया जाता है, और शरीरके लक्षणों करके ही उस अलक्ष्यके लक्षण किये जाते हैं | गये तो थे अपना भवन बुहारनेके लिये, परन्तु उल्टा दूसरोंका कचरा अपने अन्दर भरने लगे । हे परमात्मा! यह कैसा रोग लगा ? वैरीको भी नसीव न हो । कच्चे फोड़े में चीरा देनेसे भरिया-फूटीके समान यह तो उल्टा रोग बढ़ गया। 'गये थे नुमाज बख्शवानेको, उल्टे रोजे गले. पड़े। जिस प्रकार चिड़िया बाजके भयसे अपने धौंसलेमें दौड़ती है, परन्तु विक्षेपके कारण उसको वहाँ अन्धकार ही. प्रतीत होता है, ठहर नहीं सकती, तत्काल बाहर निकल आती है और बाज़