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[साधारण धर्म है, चाहे उसने वख नारा हो। इस साधनसामग्रीके बिना चाहे वख भी रह लिये गये हों, तथापि वेदान्तश्रवण अपना रङ्ग नहीं जमाता और न यथार्थ फलका हेतु ही होता है । मोक्षके चार द्वारपाल शम, सन्तोप, विचार और सत्सङ्गने इसने गाढ़ मित्रता की है। इस अवस्थापर पहुँचकर ही वास्तव में वेदान्त श्रवण अपना रङ्ग दिखलाता है और सभी शान्तिका जुन्मेवार बनता है। जिम प्रकार सुवर्णकी डलोसे कोई भूपण बनाना इष्ट है तो आवश्यक है कि पहले उसको अग्निमे तपाकर पानीके समान पतला कर लिया जाय, केवल तभी उसको मनमाने रूपमें वदल सकते हैं, इसके विना नहीं । उनी प्रकार इस जीवको शिवम्पमें बदलना इष्ट है तो इस वातकी अत्यन्त आवश्यकता है कि अन्तःकरणको वैराग्यकी उपयुक्त अग्निमे गला कर बिल्कुल पतला बना लें, तभी हम सच्ची शान्तिके भागी हो सकेंगे। वैताल, जोकि पूर्व अवस्थाओंमें सिरमे डण्डे मार मारकर त्यागकी भेटें ले रहा था, इस अवस्थापर पहुंचकर इस सच्चे आशिकके चरणों में नतमस्तक होता है । "हे प्रिय जिज्ञासु ! हे वीरपुरुप तेरी जय हो, मैं हृदयसे तेरे चरणों में नमस्कार करता हूँ, तू ही इस संसाररूप संग्रामका सच्चा विजेता है।" - जिस प्रकार सिंहनीका दूध धारण करनेके लिये सुवर्ण का वैराग्यशून्य पुरुषको ही पात्र चाहिये, यदि अन्य किसी वेदान्तप्रवृत्तिमें दोष । पात्रमे दूध रखा गया वो यह पात्रको फाड देगा, इसी प्रकार इस वेदांतश्रवणरूपी दूधको धारण करनेके लिये केवल हमारे इस मतवाले जिज्ञासुका हृदय ही पात्र हो सकता है। जो लोग नीचेकी किसी अवस्थामे ही रहकर इस दूधको पान करनेमें प्रवृत्त हुए हैं, वे कदापि इस दूधसे बल प्राप्त न कर सकेंगे! यदि पान करनेवाला ( श्रोता) नीची कोटिका है तो इस दूध ,