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[साधारण धर्म स्थित रखना 'एकेन्द्रियसंना' वैराग्य कहलाता है।
.. (६) शोकारसंज्ञा वैराग्य ! उत्साहमात्रका भी अभाव, अर्थात् दिव्यादिज्य विषयोंकी प्राप्ति होनेपर भी उपेक्षावुद्धि और मनका चलायमान न होना, अर्थात् चित्तमे क्षोभ न होना वशीकारसंज्ञा वैराग्य कहलाता है।
इस प्रकार इस महापुरुषका अन्तःकरण गंग-द्वेपादि मलसे निर्मल होनेके कारण श्वेत-चिट्टे ववके समान शोभायमान हुश्रा है, जोकि ज्ञानरूपी केशरका रंग धारणेके योग्य है । अव देवी सम्पत्ति अपने आप इसके हृदयमें पूर्ण रूपसे विराजमान हो गई है और दासीकी भॉति सेवा में उपस्थित है। पुत्रपणा,वितषणा व लौकैपणा इन त्रिविध एपणाओंको वेड़ियाँ जो सम्पूर्ण जन्म-मरणादि दुःखोंकी मूल और ज्ञानमे भारी प्रतिवन्धक होती हैं तथा जिनकी विद्यमानतामें ज्ञान असम्भव है, इस अवस्था पर पहुँचकर इस महापुरुषकी कट चुकी हैं और अब वह खराखरा जानका अधिकारी हुआ है। इस प्रकार यह शुम-गुणरूपी रत्नोंका भण्डार हो गया है, जिनका लक्षण गीता अ १३ मे इस भॉति किया गया है।
अमानित्वमदम्मित्वमहिंसा चान्तिरार्जवम् । आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥७॥ इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च । जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोपानुदर्शनम् ॥८॥ असक्तिरनभिष्वंगः पुत्रदारगृहादिषु ।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥९॥ १. पुत्रकी. इच्छाको 'पुत्रैपणा',धनकी इच्छाको 'विशेपणा' और 'संसार मुझे मला कहे' इस इच्छाको लोकेपणा' कहते हैं। यह तीनों ही परमार्थमें भारी प्रतिषधक है।