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आत्मविलास]
[२६० मनुष्ययोनिमें कोके अनुसार वॉधनेवाली जिमकी वासनारूप जड़ें पावालपर्यन्त चली गई हैं और तीनों गुणरूप जलसे पुष्ट हुई जिसकी शाखाएँ विषयभोग रूपसे तीनों लोकमें सर्वत्र फैल गई हैं, जैसा गीता अध्याय १५ श्लोक २ मे कहा गया हैअधोवं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रबद्धा विषयप्रवालाः। अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबंधीनि मनुष्यलोके ॥
हॉ, यह तो हम भी मानते हैं कि जीवन अल्प है, परन्तु अपने आचरणोंसे तो तुम यह सिद्ध नहीं कर रहे, बल्कि इसके विपरीत यही सिद्ध कर रहे हो कि कभी मरना होगा ही नहीं
और सदा अमर रहेंगे । व्यवहारमे भी निर्भय होकर ऐसे उच्छल रूपसे वर्त रहे हो, मानो तुम सर्वथा स्वतन्त्र हो हो, तुमको कोई कहने-सुननेवाला है ही नहीं और तुम्हारे ऊपर किसीका भी दण्ड नहीं । हाँ यह वात तो हम सिर-गॉखोंसे स्वीकार करते , चाहे जहाँ हमसे कस्मे दिलाकर कहला लो कि वास्तवमें तो तुम अमर ही हो और पूर्ण स्वतन्त्र । तुम्हारे ऊपर कोई विधि नहीं, बल्कि तुम तो सम्पूर्ण ब्रह्माण्डके शासक हो। मला, तुम्हारे ऊपर किसका दण्ड ? परन्तु अपने-आपको शुद्ध स्वरूप ठाने भी रहो । मन, इन्द्रिय और देहमे बॅधे रहकर इनका अभिमान करना और वनके दिखाना निद्व! 'चुपड़ी
और दो दो' यह कैसे निमेगी रहना नो रोगी और आचरण करने निरोगी । यही तो रोगको बढ़ा लेना है । बंधा हुआ मुक्त के आचरण करने लगे तो उल्टा अधिक बंध जाता है। जोवन अल्प जाना होता तो सुखकी नींद न सोते । जैसे किसीको विदेश जाना होता है तो रात्रिको सुखसे नहीं सोता ज्योंत्यों अपने सब काम करके गाड़ीसे १ घंटे पहले स्टेशनपर पहुँचनेका ध्यान रखता है और कोई काम अधूरा छोड़ना नहीं