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[ साधारण धर्म कर चुके हैं इससे आगे ही बढ़ना होगा। ऐसी अवस्थामें वर्तमान मनुष्य-जन्म तो अकारथ ही गया। 'न दीनके रहे न दुनियाकेइस प्रकार तुम्हारे वचनोंके अनुसार तो दुनियाके. दुख-दर्द मिटनेसे रहे फिर तो मोक्ष खपुष्पके समान कथनमात्र ही रह जायगा । दूसरे, तुम्हारे यह वचन ज्यों-के-त्यों अनुमवमें भी नहीं आते, क्योंकि बहुत-से महापुरुष नानक, कवीरं आदि और वर्तमानमें भी बहुतसे सन्त-महात्मा तुम्हारी इन झंझटोंमें पड़नेके बिना ही एकदम छलॉगें' मारकर संसार के पार जाते दीख पड़ते हैं। फिर तुम्हारी इस दन्तकथा में फंसने का कौन बुद्धिमान् माहम करेगा? ___ समाधानः-सुनो प्यारे आपत्तिकारक ! दिलके कान खोल कर सुन लो । कहावत है कि 'रोग हाथीके मुंहसे आवा है और चिउँटीके मुंहसे जाता है । अर्थात् रोगकी उत्पत्ति तो अकस्मात एकदम हो जाती है परन्तु निवृत्ति वो क्रमसे शनैः-शनैः ही होगी। जब शारीरिक रोगोंकी यह अवस्था है तव यह तो जन्म-मरणका विशुचिकारूप भारी रोग है, जो यावत् शारी रिक प मानसिक रोगोंका मूल है और असंख्य जन्मोंसे दृढ़ होता चला आया है। इसकी निवृत्ति यों ही बातों में पूरी-पूरी भेट दिये विना कैसे कर जाओगे? देखें, एकदम इस रोगसे निकल भागो तो सही, सन्निपातके रोगीके ममान उल्टान भड़क जाओ तो कहना ! 'मक्खीका मधुमें फंसना तो सहज है, परन्तु उसी तरह सहज ही एकदम निकल भागना चाहे तो छूटनेके स्थानपर उल्टा अधिक लिसड़ जायगी। हॉ, शनैःशनै क्रम-क्रमसे अपने हाथ-पैरोंको धीरजसे निकालनेका प्रयत्न करेगी तो अवश्य मधुसे छुटकारा पा जायगी। जब सामान्य रोग सहज ही काटे नहीं कटते तब यह संसाररूपी वृक्ष सहज ही कैसे काट सकोगे कि जिसकी अहंकाररूपी सुदृढ़ मूल है,