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श्रामविलास ]
[२६२ यदि तुम कमर कमकर इस मार्गपर चल पड़ो तो जितना कुछ मार्ग तुम इस सन्ममें पूरा कर लोगे, शपथ लेकर कहते हैं कि मायाजन्सगं तुमको उससेागे ही वदना होगा,इसमे सन्देह ही न जानो । याद तुमको हमारे वचनोंपर विश्वास न हो तो यह लो, हम ग्वय भगवान्को ही आपके मामने साक्षीमें खड़ा कर देते हैं । इससे अधिक साक्षी तो हम लाएँ कहाँसे ? अर्जुन को भी इसी प्रकार भारी सन्देह हुआ था । अर्जुन कहता है:
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाचलितमानसः । अप्राप्य योगसंसिद्धि कां गति कृष्ण गच्छति ॥ कचिनोमयविभ्रदरिबन्नाभ्रमित्र नश्यति अप्रतिष्ठो महाबाहो निमूढो ब्रह्माणः पथि ।। एतन्मे संशयं कृष्ण छेतुमर्हस्यशेषतः । त्वदन्यःसंशयस्यास्य वेत्ता न पपद्यते ॥(गी,१३७-३६) अर्थः हे कृष्ण ! जिसका मन योग (ईश्वर-प्राप्तिरूप मार्ग) मे चलायमान हो गया है, ऐमा शिथिल थलवाला परन्तु श्रद्धाथुक्त पुरुप योगमिद्धि (भगवन्-साक्षात्कार) को न पाकर. किस गतिको मान होता है ? हे महाबाहो! वह भगवत् प्राप्तिके मार्गगे मोहिन हुआ आश्रयरहित पुरुष छिन्न-भिन्न बाढलोंकी भॉति दोनों ओरसे (अर्थात् भगवत-प्राप्ति और सांसारिक भोगांस) भ्रष्ट हुया क्या नष्ट तो नहीं हो जाता है ? हे कृष्ण मेरे इम मशयको अगंप ( पूर्णता) से छेदन करनेके लिये प्राप ही योग्य है, क्योकि आपके मिवाय इस सशयका छेदन फरनेवाला मिलना सम्भव नहीं है। ( अर्जुनने इस संशयको पूर्ण महत्त्व दिया है और यह ठीक भी है, प्रारम्भ में जिज्ञासु को यह मार्ग सुरस्य धारावत् तीक्ष्ण प्रतीत होता है, इसलिये