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'आत्मविलास ]
[२५० सुखिया सब संसार है, खावे और सोवे । दुखिया दास कबीर है, जागे और रोवे ॥१५॥ नाम वियोगी विकल तन, ताहि न चीन्हे कोय ।। तम्बोली का पान ज्यू, दिन दिन पीला होय ॥१६॥ माँस गया पिञ्जर रहा, ताकन लागे काग । साहिब अजहुँ न पाइया, मन्द हमारे भाग ॥१७॥ विरहा सेती मत लड़े, रे मन मोर सुजान । हाड मास सब खात है, जीवत करे मसान . विरह जलन्ती मैं फिरूँ, मो विरहनि को दुःख ।। छाँह न बैहुँ डरपती, मति जलि उठै रूख ॥१९॥ चूड़ी पट पलंग से, चोली लाऊँ श्राग । जा कारन यह तन धरा, ना सूती गल लागि ॥२०॥ अम्वर कुञ्जा कर लिया, गरजि भरे सब वाल | जिनते प्रीतम बीछुरा, तिनका कौन हवाल ॥२१॥ रक्त माँस सब मखि गया, नेक न कीन्हो कान । अब बिरहा कूकर भया, लागा हाड चबान ॥२२॥ यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहि । शीश उतारे मुहे घरे, तब पेठे घर माहि ॥२३ । शीश उतारे भुई धरे ता पर राखे पाँव । दास कबीरा यों कहे, ऐसा होय तो श्राव ॥२४॥ १ वृक्ष ।२ मृत्तिका पात्र विशेष, शोरा।