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आत्मविलास ]
[२४८ गई है और ज्ञानरूपी पौके लिये रुकी हुई है। यदि यह पौ पड़ गई तो वाजी समाप्त हुई और जीतो गई, नहीं तो सूकर-कूकर आदि ८४ लाख योनियोंका भ्रमण फिर कहीं गया ही नहीं। इसी प्रकार अब यह मनुष्यजन्मके महत्त्वको भली-भाँति समझ नानरूपी पी के लिये व्याकुल हो रहा है और एकमात्र ईश्वरप्राप्तिरूप जिज्ञासा ही उसके हृदयमे भरपूर हो गई है । यथा :या तन को दिवला कसे वाती मेलॅ जीव । स्त जो सीधैं तेल ज्यू तब मुख देखें पीव ॥
और उस सत्यप्रेमके विरहमे अव उसमें यह अवस्था बरतने लगी है :विरहिनि देइ संदेशरा, सुनो हमारे पोव । जल बिनु मच्छो क्यों जिये, पानी में का जीव ॥१॥ विरह तेज तन में तपे, अङ्ग सबै अकुलाय । घटे सूना जिव 'पीव में, मौत ट्रॅढि फिर जाय ॥२॥ अंखियन तो झॉई परी, पंथ निहार निहार .! जिस्या तो छाला परा; नाम पुकार पुकार ||३|| नैनन तो झरि लाइयाँ, रहट बहै निसु वास । पपिहा ज्यों पिउ पिउ स्टै, पिया मिलन की आस ॥४॥
1. जिस प्रकार मछली जलविना जीवित नहीं रह सकती, इसी प्रकार मैं भी भाप सागरकी मीन हूँ, मापके बिना कैसे .जी..!
शरीररूपी घट जीवके विना शून्य हो रहा है, जीव शरीरमें न रहकर अपने पीव परमारमा घस रहा है। इस लिये मौत भी शून्य घटको देखकर लौट जाती है, क्योंकि जीवके विना शून्य व मृत शरीरको मृत्यु क्या मारे
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