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[साधारण धर्म चिरह बड़ो बैरो भयो, हिरदा धरे न धीर । सुरत सनेही ना मिले, तब लगि मिटे न पीर ॥५॥ विरहनि ऊमी पंथ सिर, पंथिनि पूछे धाय।। एक शब्द कहु पीवका, कब रे मिलेंगे प्राय ॥६॥ विरह भुजङ्गम तन डस्यो, मंत्र न लागे कोय । नाम वियोगी ना जिये, जिये तो चाउर होय ॥७॥ विरह भुजङ्गम पैठ के कियो कलेजे घाव । विरहनि अङ्ग न मोड़ि है, ज्यों भावे त्यों खाव ।।८।। के विरहनि को मीच दे, के आपा दिखलाय ।
आठ पहर का दामना, मोपे सहा न जाय ॥९॥ विरहं कमण्डल कर लियो, वैरागी दो नैन । माँगें दरश मधूकरी, छके रहें दिन रैन ॥१०॥ कबोर हँसना दूर कर, रोने से कर चीत ।। विन रोये क्यों पाइये, प्रेम पियारा मीत ॥११॥ हसू वो दु:ख ना बोसरे, रोउँ चल घट जाय । मन ही माँहि बिसरना, ज्यू धुन काठहिं खाय ॥१२॥ कोड़े काठ जो खाइया, खात किनहुँ नहीं दोठ । छाल उपारि जो देखिया, भीतर जमिया चीठ ॥१३॥ हँस हँस कंत न पाइया, जिन पाया तिन रोय । हँस खेले पिया मिले, तो कौन. दुहागिन होय ॥१४॥ १. खड़ी । २. मौत । ३. जलना।