________________
२४७]
[ জামায এক आन औसान तजी अभिमान, सुनो धर कान मजो सिय पी को, पायं परंपद हाथ सँ जात, गई सो गई अब राख रही को ।।
एक श्वास खाली नहीं खोइये खलक बीच, कीच रूप कलङ्क अङ्क धोयले तो धोयले । उर अंधियार पाप पूर से भरयो है, ता में ज्ञान को चिराग चित्त जोयले तो जोयले । मानस जन्म बार बार ना मिलेगो मृढ़, परम प्रभुसे प्यारो होयले तो होयले। क्षणभङ्गर देह तामें जन्म सुधारियो है, बिजली के झमके मोती पोयले तो पोयले ॥
अपके बाजी चौपड़का, पौमें अटकी आय । , जो अबके पौ ना पड़े, तो फिर चौरासी जाय ।।
भावार्थ:-चौपड़के खेलमें ८४ खाने होते हैं । जव सब नरद ८४ खानों से होकर अन्दर चली जाती हैं और एक ही नरद अन्तके ८४वें खानेमें अटक जाती है,तव यदि पौ पड़ जाय तो बाजी समाप्त हो गई और जीती गई । परन्तु यदि पौ न पड़े तो वह नरद फिर पोटी जाती है और उसको मरकर फिर ८४ खानों की परिक्रमा करनी पड़ती है । यही हाल इस संसाररूपी चौपड़ का है, जिसमें ८४ लाख योनिरूप खाने हैं। जोवरूपी नरद इन खानोंमें भ्रमण करके अन्तके म४वे खाने (मनुष्य-योनि) मे अटक
, 'सो' शब्दका इस सवैये में देहली-दीपक न्यायसे 'मोसान' और 'अभिमान' दोनोंसे सम्बन्ध है, अर्थात् अन्य औसान छोड़ो और ' अभिमानका त्याग करो।