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[साधारण धर्म बना लेता है और तभी वह मनको पुष्ट कर सकता है । वास्तवमें मनोमय व इष्टिमय ही यह संसार है, वाह्य पदार्थ मन व दृष्टिके ही परिणाम हैं। जो कुछ अन्दर भरा हुआ होता है वही बाहर निकलता है। इस प्रकार जब मन व दृष्टि, उस वास्तव इष्टदेवके रूपसे भरपूर हुई तो बाहर पात-पातमें वही रूप दीख पड़ने लगा। यही उपासनाका फल है और वही अवधि । इस रीतिसे भावकी परिपकता करके चराचर भूतजातमे भगवानकी विचित्र-विचित्र छवियोंका दर्शन करना, यही विषमतानाशक समताभरा प्रेम है। यद्यपि पूर्ण और वास्तविक समताकी नकद उपलब्धि तो जानद्वारा जीव व ब्रह्मके अभेदसाक्षात्कारपर ही निर्भर है, तथापि भावोद्वारा यह उस मच्ची समताकी ओर अग्रसर हो रहा है और शीघ्र ही उसको प्राप्त करेगा। ., इस प्रकार हमारा उपासक-जिज्ञासु उपयुक्त भक्तिकी छः श्रेणियोंसे उत्तीर्ण होकर 'तस्यैवाहम्' (मैं उसका ही हूँ) भावसे ऊँचा उठकर तवैवाहम्' ( मैं तेरा ही हूँ) मे स्थत होगया और रजोगुणसे निकलकर सत्त्व रजमें जा टिका । यही परामार्थरूपी वृक्षकी लहलहाती हुई हरी-भरी टहनियॉ व पत्ते हैं, जो देखनेवालोंके चित्तोको अपनी ओर आकर्षण करते हैं। संसार सम्बन्धी पदार्थोंने अपने प्रेमके लिय जो अवकाश हृदयमें धारण किया हुआ था और जो विषमताके हेतु बने हुए थे, भक्तिके उपर्युक्त पवित्र भावोंने अव वह स्थान उनसे छीन लिया और सुखसाधनंतावुद्धि अव उन पढार्थोमेंसे कॅच कर गई । यही त्याग की छटी भेट है जो वैतालके चरणोंमें समर्पण की गई और वह वैतालकी प्रसन्नता व तृप्तिकी हेतु बन रही है । यद्यपि उन पदार्थोकी सत्ता अभी विद्यमान है और दग्ध नहीं हुई, तथापि अब वह दग्ध होने के सम्मुख हो रही है।