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आत्मविलास]
[२४० (५) वैराग्यवान (अर्थात् तत्व-जिज्ञासु)
'वैराग्य' शब्दका अर्थ है विगत + राग-वैराग्य । अर्थात् वैशम्यका हेत व स्वरूप संसारसम्बन्धी भोग्यपदार्थोमें सत्यबुधि
रखकर चित जो चहुँट रहा था, आसक्त हो रहा था, रागवान् हो रहा था उससे इस रागका अभाव हो जाना ही 'वैराग्य है। अपने शरीरमें आसक्ति करके वाह्य विषयोंमें जो स्वार्थमूलक प्रेम लेता है वह 'राग' कहा जाता है। जीवकी दौड़-धूप सुखके निमित्त किसी क्षणके लिये भी नहीं रुकती, यह प्रकृतिका अटल नियम है ! वाह रे सुखम्वरूप । तू वन्य है, तेरे ऊपर वजिहार जाऊ! बारम्बार तेरी वलयाँ लें। तीन लोक चौदह भवन तेरे ऊपर न्यौछावर कर दूँ ! न जाने तू कैसा रसभरा होगा, जिसने ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त अनन्त ब्रह्माण्डवर्ति अनन्त जीवोंको अपने लिये व्याकुल कर रक्खा है। सौ मेंसे सौ ( cent per cent ) हो तेरे लिये सन्तम हैं, कोई एक भी तो ऐसा दृष्टि नहीं आता जिसके सिरपर तेरा हाथ न रक्खा गया हो।
उपर्युक्त नियमके अनुसार सुखकी प्यास बुझानेके लिये जव जीव संसाररूपी भूल-भुलैयॉके पदार्थोंके पीछे भटक-मटककर थकित हो जाता है और किसी भी रूपसे प्यास बुझनेकी आशा नहीं रहती तो वरवश उसको अपने मनरूपी घोड़ेकी बागडोर मोड़नी पड़ती है, जिसकी चर्चा विपयी पुरुषोंके प्रसङ्गमें की जा चुकी है। उधरसे मुँह मोड जव त्यागकी सड़कक इसन पकड़ा और शुभसकाम निष्कामकी मलिलोंको लॉघकर जब उपयुक्त भक्तिको बढी चढ़ी अवस्थामें विश्राम पाया तो वैतालने संतोप प्रकट किया। इधर सुखशान्तिकी चटनी जो रस देने लगी और तमोगुण व रजोगुणके निकलनेपर सत्त्वगुणने जो सारासार