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[साधारण धर्म विवेकको सम्मुख धान खड़ा किया तो चुप-चाप भीतर ही भीतर सारासार-निर्णय हृदयमें घर कर गया। सांसारिक भाग्य-विषय हमारे सुखके साधन नहीं हैं। इस सम्बन्धमें जो विचारोंका परिवर्तन विपयो पुरुपोंके प्रसङ्गमे पीछे पृष्ट ११०से १२१ तक इससे हुआ था, उस समय तो ये विचार इसके कण्ठचक ही रहे; परन्तु अव इस सारासार-विवेकने बुद्धिरूपी कुठालोमे उन विचारों कोभली-भाँति पकाकर और उनकी सत्यताका प्रवाह रक्तके साथ मिलाकर इसकी नाड़ी-नाड़ोमे प्रवेश कर दिया और इन्द्रियोंके विषयभूत चमकीले चटकीले पदार्थोंसे सर्वथा मन हा गया । इस प्रकार भक्तिको उपयुक्त अवस्थासे वैराग्य इसी प्रकार प्रसवित हो पाया, जिस प्रकार हरी-भरी सजल टहनी-पत्तियोंसे अपने समयपर फूल निकल पड़ता है । रज्जुके ज्ञानसे जिस प्रकार सर्पकी सत्ताका अभाव हो जाता है, उसी प्रकार यद्यपि इन भोग्य पदार्थों की सत्ताको अभाव तो अभी नहीं हुआ, तथापि अब इनमें सुखसाधनती-बुद्धि नहीं रही। अव ये भोग्य-विषय इस वैराग्यवानके लिये इधर तो इन्द्रियप्रतीतिके विषय बने हुए है
और उधर दुःखके हेतु, इस लिये सर्पके समान भयदायक हो रहे हैं। क्योंकि वस्तुत विषयोंके लिये तो विषयोंकी पकड़ नहीं थी, किन्तु सुखके लिये ही इनमे प्रवृत्ति होती थी। परन्तु जब इनसे थोड़ा किनारा कर भक्तिके प्रभावसे निर्विषयक सुखकी चटनी मिलने लगी और इनके उपार्जन, रक्षा व नाशजन्य क्लेशोंका फोटो ऑखोंके सामने आने लगा,तव स्वाभाविक हीमन इनसे इसी प्रकार हरा गया, जैसे बाल्यावस्थामे सर्पके कोमल स्पर्शकी आसंक्ति रहनेपर भी यौवन अवस्थामे उसके स्पर्शसे मृत्युजन्य क्लेशका प्रत्यक्ष अनुभव होनेके कारण उससे खाभाविक ही मन हरा जाता है। यही वास्तव में सात्त्विक त्याग है कि विपये प्रवृत्ति अपने-आप पकती-पकती इसी प्रकार निवृत्त हो जाय, 'जैसे