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[साधारण धर्म ध्यायतो विषयांनपुंसः सङ्गस्तेपपजायते । सङ्गात्सञ्जायते कामः कामाक्रोधोऽभिजायते । (गी.२,५६) अर्थात् रागवुद्धिद्वारा विपयोंका चिन्तन करनेसे ही उनमें आसक्ति होती है, विषयासक्तिसे कामना उपजती है और कामनामें भङ्ग पड़नेसे क्रोध उत्पन्न होता है। तब कामनाभगमें निमित्तम्प जो वाह्य व्यक्ति हैं,उनके प्रति शत्रुबुद्धि और कामनासाधनमे सहायक व्यक्तियोंके प्रति मित्रवुद्धि स्वाभाविक ही उत्पन्न होती है। इन सब झंझटोंके मूलमे रागवुद्धि ही हेतु थी, परन्तु एक रागवुद्धिरूप कण्टकके निकल जानेके कारण सारी वेदनाएँ निवृत्त हो जाती हैं।
इस प्रकार यद्यपि विपयोंमें रागबुद्धिका प्रभाव तो हुआ और वाह्य शत्रु-मित्रकी भावना भी निवृत्त हुई, तथापि विषयोंकी सत्ता विद्यमान रहनेके कारण मन-इन्द्रियोंकी विषयोंके प्रति रसवुद्धि अभी शेष रहती ही है। जिस प्रकार रोगीको खट्टे-मीठे पदार्थोंमें कुपध्यरूप निश्चय करके रागवुद्धि तो नहीं रहती, परन्तु पदार्थोकी सत्ता भास होते रहनेसे रसवुद्धि शेष रहती है। अर्थात् रोगीको जब यह यथार्थ निश्चय हो जाता है कि यह खट्टेमीठे पदार्थ मेरे रोगकी वृद्धि करनेवाले हैं और इनके सेवन करने से मैं मर जाऊँगा, तब उन पदार्थोमे उसका राग तो नहीं रहता बल्कि उनको देखकर भय होता है, तथापि पूर्वानुभूत रसकी स्मृति करके उसकी उनमें रसबुद्धि अवश्य बनी रहती है कि इनमें ऐसा रस है और मैं रोगमुक्त हो जाऊँ तो इनका सेवन करूँ। यथा:
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः । रसवर्ज रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्या निवर्तते ॥ (गी.२.५९)