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आत्मविलास]
[२४४ अर्थात् विपयोंका भोग न करनेवालं जीया भी विषय तो निवृत्त हो जाते हैं परन्तु ( त्रिपयांकी मत्ता विनमान रहने के 'झारण) उनमें रसबुद्धि बनी रहती है। वह मधुद्धि भी धिटानरूप परमात्माके साक्षात्कारद्वारा रमजित प्रोत रमरहित हो जाती है।
रसवुद्धि तो विपयाके प्राश्रय ही रहनी है, परन्तु ज्ञानीकी दृष्टिमें तो तत्त्व-साक्षात्कारद्वारा जब विषयमी मत्ता ही लुप्त होगई तो रसधुद्धि स्वतः ही लोप हो जाती है, जैसे शुक्तिक ज्ञानसे रजत व रजतजन्य लोभादि टोनी ही निवृत्त हो जाते है। परन्तु विपयसत्ताके अभाव विना रमवृद्धिका प्रभाष असम्भव है। इस प्रकार विषयसत्ताको विद्यमानताके कारण विषयोंके प्रति
आकर्पण शेप रहनेसे अब यह शमन्द्रमादिद्वारा मन-इन्दिग्राफी दमन करनेमे तत्पर है जोकि इस श्राफर्पणके अधिकरण है, इन्हींको इसने अपना शत्रु चीन्हा है और अपने प्रात्मधनको चुरानेवाले इन चोरोंको अपने भीतर ही पका है।
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः । इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥ (गी.२६०) अर्थात् यह इन्द्रियों ऐसी प्रमथन स्वभाववाली हैं कि यल करते हुए विवेकीपुरुपके भी मनको बलात्कारसे हर लेती हैं।
इस प्रकार इच्छा न रहते हुए भी अब यह मन-इन्द्रियोंकी पैराग्यवानके चित्तका | विषयप्रवृत्तिसे सन्तप्त हुआ है और जन्म
मरणरूप संसारके क्षयीरोगसे पीड़ित
- हुआ है । अतः अपने मनमे ही अपने अन्तर्यामीदेवके प्रति ऐसी कूक कर रहा है :
अवस्था