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। साधारण धर्म और विभूतिपूजा विभूतिको स्पर्श न करके विभूतिमान्को हो स्पर्श करती है। जो लोग इसको जड़पूजा कहते हैं उनकी बुद्धि जड़ है और वे प्रकृतिके रहस्यको नहीं जानते।
'न काठे विद्यते देवो न पापाणे न मृण्मये । भावे हि विद्यते देवस्तस्माद्भावो हि कारणम् ॥ अर्थ यह कि देव न काष्ठमें ही है, न पाषाणमें और न मृत्तिकामें ही स्थित है, किन्तु देव तो केवल अपने शुद्ध भावमे हो विराजमान है। अन्ध मिन्न-भिन्न प्रतिमाएँ तो अपने भावोद्गारके लिये आधारभूत हैं, इसलिये देवार्चनमें केवल अपना भाव ही मुख्य कारण है । अर्थात् यह सम्पूर्ण संसार देवमय हुआ भी अपने भावके अभावसे पापाण-मृत्तिकादि रूप प्रतीत हो रहा है और अपने शुद्धभावके प्रभावसे चमेचतुके विषय पाषाण-मृत्तिकादि भी देवमयरूपसे ग्रहण हो सकते हैं। __ प्रतिमापूजनका उद्देश्य यह है कि वारम्वार ध्यान, 'पूजन, उपासनाकी छठी श्रेणी / अचेन व वन्दनद्वारा भगवान्का स्वरूप मानसिक पूजा। हृदयमें ठहर जाय । उपासनाकी छठी -
श्रेणी मानसिक-पूजा है । अर्थात् जिस देवका प्रतिमापूजनके पालम्बनसे ध्यानादिक किया गया है, जब उसका स्वरूप हृदयमे, स्थिर हो जाय, तव प्रतिमाके आलम्बन विना मनसे ही मानतिक-सामग्रीद्वारा ह्रदयमें उसका पूजन किया जाय । इसकी विधि यह है कि प्रथम इष्टदेवका कुंछ स्तुतिपाठ किया जाय, तदनन्तर नेत्र बन्दकरके किसी पवित्र तीर्थस्थानपर जो स्वाभाविक अपने चित्तको रुचिकर हो, मनको स्थित किया जाय । अर्थात् उस पवित्र स्थानकी मनमे कल्पना करके अपने आपको उस स्थानपर ही स्थित देखा जाय और इष्टदेवका शुद्धमावसे अपने हृदयमें ही आह्वान किया जाय । फिर