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[साधारण धर्म अपनी अपनी रुचिके अनुसार लेखनी, तलवार, कुदाल, रासभ श्रादिकी पूजा भी करते हैं । परन्तु कामनाओं करके उनके चित्त हरे हुए रहने के कारण वे इसके रहस्यको नहीं जानते और वास्तविक फलसे वञ्चित रह जाते हैं । वस्तुतः उपर्युक्त सब पदार्थ उस एक ही सादी चेतनकी भिन्न-भिन्न उपाधि हैं । उन भिन्न-भिन्न उपाधियोंके मूलमे भेदसे रहित वह एक ही साक्षीचेतन विद्यमान है और उन सकामिगेंके भिन्न-भिन्न भावोंके अनुसार फल भी उस एक निरूपाधि साक्षी चेतनसे ही प्राप्त होता है, परन्तु उम तत्व वस्तुको न जान वे उन जड़ उपाधियोंसे ही फलकी सिद्धि मानते हैं। श्राशय यह है कि यथार्थमें उन भिन्न भिन्न उपाधियोंको पूजकर भो वास्तव में वे तद्गत्-चेतनको ही पूजते हैं और उनकी मनोरथसिद्धि भी वास्तवमे उन उपाधियों स न होकर तद्गत चेवनसे ही होती है 1 परन्तु वे जड़मति अपनी जड़ताके कारण उन जड़ उपाधियोंसे ही मनोरथसिद्धि जानते हैं और अपनेको उन उपाधियोंकी ही पूजा करनेवाला मान लेते हैं । इस प्रकार बुद्धिकी जड़ताके कारण वे वास्तव फल से वश्चित ही रह जाते हैं। यथार्थमें तो निष्काम भावुक-भक्तोंके लिये उपयुक्त पूजाएँ निकटसे निकट और दूरसे दूर भिन्न-भिन्न विभूतियोंमें भगवानका रूप निहार-निहार प्रेममें मग्न होनेके लिये ही थीं। सियाराममय सब जग जानी, करुं प्रणाम जोरि युग पानी।
गीता अध्याय १०में अर्जुनके प्रश्नपर,कि 'केपु केषु च भावेषु चिन्त्योऽमि भगवन्मया' अर्थात् 'हे भगवन् ! आप किन-किन भावोंमें मेरे द्वारा चिन्तन करनेयोग्य हैं ?' उत्तरमैं भगवान्ने श्लोक २० से ३८ तक सम्पूर्ण चराचरमें अपनी विभूतियोंका संक्षेपसे निरूपण किया है । जैसे