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आत्मविलास] छष्टान्तरूपसे समझ सकते है कि यदि अग्निमे उप्णता और जलमें कद (गलाना) धर्म न रहे तो हमारा चाहे कितना भी पुरुषार्थ क्यों न हो, हमारे अपने पुरुषार्थसे ही हमको रोटी नसीव नहीं हो सकती। साधारण रूपसे किसी पदार्थके नेत्रद्वारा देखनेमें अनेक नाडियोंमें क्रिया उत्पन्न होती है,तव ऑख किसी पदार्थको देखनेमे समर्थ होती है । यदि नेत्रकी उन नाड़ियोंमे क्रिया न रहे तो वे स्वय किसी पदार्थको देखनेमे समर्थ न हो। सारांश, समग्र स्थूल-सूक्ष्म शरीर जिसको हम कर्ता मान रहे हैं, वह केवल एक कठपूतलीके समान ही है और वह सूत्रधारी ही इसको हिलावला रहा है । वस्तुत.सब कर्तृत्व उसीका है रञ्चकमात्र भी हमारा नहीं। इस प्रकार जब सत्त्वगुण हृदयमे भरपूर होता है, तब कर्तृत्व-अभिमानका अभाव हो जाता है और शान्ति, सन्तोष, सरलता, कोमलता, प्रेम, सफलता आदि गणेशजीके अनुचर आ विराजते हैं और उपर्युक्त सभी विनोंको मार भगाते हैं।
अहंकर्तेत्यहमानो महाकृष्णादिशितः । नाहंकतेति विश्वासामृत पीत्वा सुखी भव ।।
(अष्टावक्र ) अर्थ-हे जनक | 'मैं कर्ता हूँ! इस अहङ्काररूपी काले सर्पसे डसा हुआ तू 'मैं कुछ नहीं कर्ता इस विश्वासरूपी अमृतको पीकर सुखी हो।
इसी लिये सब कमोंके आरम्भमें इस 'विघ्नहरण मङ्गलकरण' की स्तुति की जाती है । परन्तु केवल वाणीसे कथनमात्र ही लाभदायक न होगा, किन्तु इसको हृदयमें विराजमान करक हृदयसे कथन करना आवश्यक है। केवल रोली-मोली चढ़ानेसे इसकी तृमि न होगी, किन्तु मन-बुद्धिकी भेटसे ही इसको सन्तोष मिलेगा!