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[ साधारण धर्म जिसकी विद्यमानतासे पदार्थका अस्तित्व रहे और जिसकी शक्तिमूर्तिमें कारण- | अविद्यमानतासे उसका अस्तित्व लुप्त हो प्रारूप निगुणभाव।। जोय, वही उस पदार्थकी शक्ति है । जैसे जलमें रस, अग्निमें तेज, पृथ्वीमे गन्ध ।
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः । प्रणावः सर्ववेदेषु शन्दा खे पौरुष नृषु ।।
- (गी. भ. ७ लो ८) अर्थ:-हे कौन्तेय ! जलमें रस, सूर्य-चन्द्रमामें प्रभा, सब वेदोंमें उकार, आकाशमै शब्द और पुरुषोंमे बलरूपसे मैं ही हूँ।
प्राशय यह है कि संव पंढाथोंमे शक्तिरूपसे वह परमात्मदेव ही विराजमान है, उपाधिभेदसे, उसी शक्तिके भिन्न-भिन्न नाम हो गये हैं। जिस प्रकार एक ही जल भिन्न-भिन्न पात्रोंकी उपाधि करके पानके अनुरूप भिन्न-भिन्न रूपोंको धारण कर लेता है, परन्तु उपाधिको छोड़कर केवल जलदृष्टिसे उन रूपोंमे कोई भेद नहीं रहता, इसी प्रकार एक ही 'अचिन्त्य-चिन्मान-शक्ति, जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्डमें नाना नामरूपात्मक प्रपञ्च में ज्याप्त होकर स्थित है, भिन्न-भिन्न नामरूपकी उपाधि करके यद्यपि भिन्न-भिन्न प्रतीत होती है, परन्तु उन सम्पूर्ण नाम व सम्पूर्ण रूपोंके नीचे अपने वास्तव स्वरूपसे वह एक ही है । दुर्गा सप्तशती अ. ५ श्लोक १४ से ७४में उस देवीका रूप इसी प्रकार वर्णन किया गया है, यथा :
या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः ।। या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः ॥