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आत्मविलास]
[१७४ समान इसके वेगको अधिकाधिक उभारनेवाला ही होता है, क्योंकि संसार स्वयं रजोगुणका मूर्ति है जैसे प्रग्निसे ताप दूर नहीं हो सकता किन्तु जलसे हो तापकी निवृत्ति सम्भव है, इसी प्रकार ईश्वरकी अोर चलाया हुश्रा इम रजोगुणका प्रवाह ही एकमात्र सांसारिक रजोगुण के शान्त करने का उपाय है । ईश्वर क्योंकि ठोस सत्त्वगुणकी मूर्ति है, इसलिये जैसे जलके मम्बन्धसे अग्नि शान्त होती है इसी प्रकार उमसे सम्पन्ध जोड़कर ही यह रजोगुण निवृत्त किया जा सकता है। ___उपर्युक्त प्रयोजनको साधनेके लिये सबसे पहले तो सगुण भक्तिका प्रादुर्भाव आवश्यक है। क्योकि मन नामरूपका पुतला है, नामरूपमे ही फंसा हुआ है, नामरूपका हो मतवाला है, इस लिये एकाएक यह बेनाम रूपमें जा नहीं सकता, बल्कि नामरूपके सहारेसे ही यह नामरूपसे छूट सकता है। उपर्युक्त सिद्धान्त के अनुसार और कोई उपाय इसके विना तामरूपसे छुटकारा पानेका है ही नहीं। इसी श्राशयको स्पष्ट करने के लिये शास्त्रकारोंका वचन है :
'तामेव भूमिमालम्व्य स्खलनं यत्र जायते' श्राशय यह है कि मनुष्य जिस भूमिपर गिर पड़ा है उसी भूमिका सहारा लेकर उस भूमिसे उठ सकता है, उसीका सहारा लिये विना उस भूमिसे उठना असम्भव है । इसी प्रान्त व सिद्धान्तके अनुसार मन नामरूपकी भूमिपर गिरा हुआ है, इस लिये ईश्वरसम्बन्धी नामरूपके सहारेसे हो यह सांसारिक नामरूपसे ऊँचा उठ सकता है। यदि विचारसे देखा जाय तो जहाँ उपास्य-उपासक भावरूप मेदृष्टि विद्यमान है,वहाँ वैखरी वाणीद्वारा जो कुछ भी कहा जायगा वह सव सगुणताके अन्तभूत ही होकर रहेगा। क्योंकि मन-वाणोद्वारा जो कुछ भी चिन्तन