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आत्मविलास ]
[२०२ ईश्वरबुद्धि, ईश्वरको तुच्छ बनानेके लिये नहीं थी, बल्कि इसी लिये थी कि जब नन्हेसे शालिग्राममें ही ईश्वरका रूप पाया तो इस प्रमाणसे पर्वत, वृक्ष, नदी, पशु, पक्षी सभी ईश्वरका स्वरूप हुए चाहिये और सब देश, सब काल, सब वस्तुमे उसीकी सत्ताका दर्शन करना चाहिये। परन्तु इसके विपरीत जो लोग इस सङ्कीर्ण दृष्टिसे प्रतिमापूजनपरायण होते हैं कि 'यही ईश्वर है और कहीं भी नहीं और इस प्रकार केवल प्रतिमामें ही ईश्वरको वॉध देते हैं, वे तो अपने हृदयोंको कोमल करनेके स्थानपर पापाण ही बना लेते हैं, वे तो हुए पत्थरके कीड़े ! जिस प्रकार बच्चा जब पाठशालामें जाता है तो गुरु उसको प्रारम्भमें पाटीपर अक्षर लिखना सिखाता है, जब पाटीपर उसका हाथ जम गया और वह पदोंको लिखना सीख गया तो फिर कापी भी लिख लेता है रजिस्टर, वही आदि सभी कुछ लिख लेता है, परन्तु पाटीपर हाथ जमाकर ही वह ऐसा कर सकता है, इसके विना नहीं। ठीक, इसी प्रकार प्रतिमा पूजन भी पाटीपर हाथ जमानेके समान है । जव प्रतिमाम दृष्टि जम गई तो सर्वत्र ही ईश्वरदर्शनका आनन्द लूटने लगे, परन्तु प्रतिमापूजनद्वारा ही ऐसा हो सकता है, अन्यथा नहीं। प्रतिमा मनको टिकानेका एक आलम्बन है कि सब ओरसे मनोवृत्तियोको खींचकर उन्हें इष्टदेवके रूपमें जोड़ा जाय । इसकी तीन अवस्थाएँ निरूपण की गई हैं।
(प्रथम) जैसे पत्थरकी शिलाका गङ्गामे शीतल हो जाना।
( दूसरी) कपड़ेकी गुड़ियाका अन्दर-बाहर पानी में निचुड़ने लगना ।
(तोसरी) मिश्रीको डलीका पानीमे गल जाना। पति (१) मनका परमात्माके स्वरूपचिन्तनसे शीतल