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श्रामविलास] तृतीय नेत्रका स्थान मस्तकमै इन दोनों नेत्रोंके ऊपर है । ऊपर होनेका तात्पर्य यह कि इन दोनों नेत्रोंमे जो प्रकाश है वह इनका अपना नहीं, किन्तु इनके ऊपर जो तीसरा ज्ञाननेत्र है उसीकी ज्योतिसे ये धन्य हुए हैं। इस शिवस्त्ररूपने अपने इसी ज्ञाननेत्र से कामदेवको भस्म किया है।
आत्मा ब्रह्मति निश्चित्य भावाभावौ च कल्पितौ। निष्कामः किं विजानाति किं व्रते च करोति किम् ॥
( अष्टावा) अर्थ. श्रात्माको ब्रह्मस्प और सम्पूर्ण भाव-अभाव पदार्थों को कल्पितरूप निश्चय करके ऐसा जो निष्काम-ज्ञानी है, वह क्या कुछ जाने, क्या कहे और क्या करे ?
अर्थात् जिसने सबको अपना-आपा करके जाना, उसके लिये न कुछ जानना ही शेष रहता है, न कुछ कहना और न करना ही। जब फ्रिसी वस्तुको अपनेसे भिन्न करके जानते हैं तभी कामना उत्पन्न होती है, परन्तु इस शिवस्वरूपने तो अपने ज्ञान प्रकाशद्वारा मवको ही अपना आत्मा निश्चय करके सम्पूर्ण कामनाओको भस्म कर दिया है। इस शिवस्वरूपके मस्तकपर शान्तिरूपी द्वितीयाका चद्रमा शोभायमान है जिसकी कलाएँ नित्य पृद्धिको प्राप्त होती हैं। दुखरूप गरलको यह पान कर गया है। समुद्रमथनके समय और सव रत्नोंके तो ग्राहक खड़े हो गये, परन्तु इस गरलका कोई भी ग्राहक नहीं हुआ। यही वह जानमूर्ति या जो सम्पूर्ण दुखरूपी गरलको हड़प कर गया। जब इसके लिये अपनेसे भिन्न कोई पदार्थ ही शेप नहीं रहता तो दुसमे इसको क्या कायरता ? यह तो इसका अपना आत्मा हो या।