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[ साधारणधर्म क्या हो सकता है ? जब प्रत्येक नीवके कर्मसंस्कार इतने अनन्त हैं तो अनन्त जीवोंके अनन्त जन्मोंके अनन्त संस्कारों का समुद्र के समान अपारावार होना आश्चर्यरूप ही क्या है ? जिस प्रकार क्षीरसे मक्खनरूप फलकी उत्पत्ति होती है और क्षीरके प्रत्येक अशमें वह छुपा हुआ है,इसी प्रकार प्रत्येक संस्कार मुख-दुःखरूप फलका हेतु है, इस लिये उन समष्टि संस्कारोंको 'क्षीरसमुद्र' मपसे वर्णन किया गया । उन समष्टि कर्मसंस्काररूप क्षीरसमुद्र में भी वह देव विराजमान है, जिससे उसकी सर्वव्यापकता व परात्परता सिद्ध की गई । उस क्षीरसमुद्रमें वह देव सोये हुए हैं, सोनेका क्या प्राशय ? सोनेका भाव यह है कि उन कर्मसंस्कारोंको भगवान् उदासीनरूपसे अपनी सत्ता-स्फूर्तिमान से फलोन्मुख कर रहे हैं, अपनी ओरसे किसीको सुख-दुःख भोगानेवाले नहीं है, बल्कि जैसे-जैसे जीवोंके कर्म होते हैं उनके अनुसार ही भगवानको सत्ता-स्फूर्तिद्वारा उनको सुख-दुःखका भोग मिलता है। जिस प्रकार एक ही भूमिमे डाले हुए गेहूँ, जौ, बाजरा, मक्का आदि अनेक बीजोंको भूमि अपने अपने समयपर, अपनी सत्ता-स्कृतिसे फलोन्मुख कर देती है और फल भी वीजके अनुसार ही निकलता है। यही कर्म-संस्काररूप क्षीरसमुद्र में भगवानके शयन करनेका भाव है । नीलवर्ण का भाव निरूपसे है। जिस प्रकार आकाशं नीलवर्ण दीखता हुआ भी निरूप है, उसी प्रकार भगवान्का भी कोई रूप नहीं हैं। अथवा नीलवणसे सत्त्वगुणकी पराकाष्टा सिद्ध होती है कि भगवान सत्त्वगुणकी मूति ही हैं। चतुर्मुजसे भाव अनन्त शक्ति का है। शरीरके सब अगोंमें वलका आधारभूत मुंजा ही मानी 'गई है. इस लिये वाहुवल ही प्रसिद्ध है। इस प्रकार चतुर्भुज उस परमात्माकी अनन्तशक्तिको ही. सूचित करते हैं। उसकी चार भुजाओंमें शङ्ख, चक्र, गदा व पद्म हैं। इनमेसे शङ्क व पट्न