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आत्मविलास]
[२१६ यदि विचारशक्तिको थोड़ा आगे बढ़ाये तो स्पष्ट होगा कि वास्तवमें इन पाँचों देवोंकी मूर्तियाँ सुन्दर भावपूर्ण हैं और प्रत्येक मूर्तिके मूलमें गम्भीर भाव भरे हुए हैं, जिनके द्वारा प्रत्येक मूर्ति उस एक ही परमदेव कारणब्रह्मके स्वरूपकी घोतक है, जिसका संक्षेपसे नीचे निरूपण किया जाता है:
विष्णुदेव अनन्तनागकी शैय्यापर क्षीर-समुद्रमे सोये विष्णु-मूर्तिमें कारण हुए हैं । नील वर्ण हैं और चतुर्भुज शह, ब्रह्मरूप निर्गुणभाव। चक्र, गदा व पद्मको धारण किए हुए हैं। उनके नाभिकमलसे रक्तवर्ण चतुर्मुख ब्रह्माकी उत्पत्ति हुई है। लक्ष्मी उनके चरण चाप रही है इत्यादि । ऐसा विष्णुका रूप वर्णन किया गया है। अब इसका रहस्य निरूपण किया जाता है। राम व कृष्णादि तो विष्णुके ही अवतार हैं इस लिये इसी रूपसे ध्येय हैं । विष्णुनाम व्यापकका है जोकि उस एक ही चेतनम्वरूपको सिद्ध करता है । अनन्तनागका भाव अनन्त-आकाश है। अनन्त-आकाशसे भी अधिक सूक्ष्म तथा अधिक व्यापक होनेके कारण उस अनन्तनागम्प आकाशको भगवान्की शय्यारूप से निरूपण किया गया अर्थात् उसमें उनकी व्यापकता जितलाई गई, जिसके ऊपर उनका शयन हो रहा है। जिसप्रकार जड़ शय्या पर चेतनपुरुपका शयन योग ही है, इसी प्रकार जड़ आकाश पर चेतनस्वरूप भगवानका शयन युक्तियुक्त ही है, क्योंकि चेतनके विना जड़की स्थिति असम्भव है। और जबकि वे आकाशके अन्तर तथा श्राकाशके ऊपर भी विराजमान हैं तो आकाशका कार्य वायु, अग्नि, जल व पृथ्वी और इन पञ्चतत्त्वरचित स्थूल ब्रह्माण्ड सबमें ही वे विराजमान हैं,इसमें तो सन्देह ही क्या है ? जीव अनादि है और प्रत्येक जीवके प्रत्येक जन्मके कर्मसंस्कार अनन्त हैं और उसके जन्म भी अनन्त ही हैं। इस लिये उसके अनन्त जन्मोंके कर्मसंस्कारोंका तो अन्त ही