________________
अात्मविलास]
[२१४ सुन्दर भावपूर्ण मापामें रची गई है। जिसका व्याह उसीके गीत वाला हिसाव है। आशय यही है कि जिसकी जिस देवमें रुचि व प्रीति हो वह उसी देवको कारणब्रह्म, अर्थात् सृष्टिकी उत्पत्ति, स्थिति व लयका रूपसे चिन्तन करे और अन्य देवोंको कार्यब्रह्मरूपसे उसका अंश जानकर चिन्तन करे । एकमात्र कारणब्रह्मकी महिमा और कारणब्रह्मको ध्येय निश्चित कराने में ही महर्षिका तात्पर्य है। वास्तवमें तो इन पाँचोंको लक्ष्य करके तत्तत् अनुगत एक सर्वाधिष्ठान,सर्वाधार,सर्वसाक्षी निरञ्जनदेव ही उपास्य है । वही देव भावुकोंकी रुचिके अनुसार भिन्न-भिन्न रूपोंमे उनको दर्शन देता है, स्वरूपसे इन पाँचोंके भेदमें कोई तात्पर्य नहीं जैसा स्वय गीताने इम विपयकी साक्षी इस प्रकार दी है:यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति । तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यम् ॥ स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधान मीहते । लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान् ॥
(अ.७. श्लो २१.२२) अर्थ-जो-जो भक्त जिस-जिम देवताके स्वरूपको श्रद्धासे पूजना चाहता है, मैं ही उत्त भक्तकी उस देवके प्रति अचल श्रद्धको स्थिर करता हूँ। वह पुरुप (मेरी दी हुई ) उस श्रद्वासे युक्त हुआ उस देवताके पूजनकी चेष्टा करता है और (उनयताके रूपमे) मेरे द्वारा ही विधान किये हुए उन इन्धित भोगोंको निस्सन्देह प्राप्त करता है।
इससे स्पष्ट है कि इन सर्व देवोंके मूलमें वस्तुतः एक ही चेतनदेव विराजमान है और यह भिन्न-भिन्न रूप तो जैसा पं. निरुपण किया गया, उम एक ही परमदेवके उपलक्षण