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आत्मविलास]
[ २२२ डमरु श्रादिक हैं जो वही वर व शापके परिचायक हैं। अर्थात् यह शिवस्वरूप अपनेसे विमुखी जीवोंको अध्यात्म, अधिव य अधिभूत त्रितापरूपो त्रिशूलसे छेदन किये बिना नहीं छोड़ता, उनपर इसका वार अचूक है। इसीलिये त्रिशूल इमके दाहिने हाथमे है। तथा अपने अनुसारी जीके लिये लोक-परलोक न्यौछावर कर देना इसके लिये विलाममात्र है, अर्थान् योग हाथका खेल है । इसी लिये मङ्गलम्प डमा बाम हम्तमें विराजता है। इसका गोरवणं होना इमकी शान्त मूर्तिका चिह्न है। इप्त देवका बाहुन धर्मरूपी नॉदिया है, धर्म विना जान असम्भव है, अर्थात् जब हमारी मब चेष्टाएँ धर्ममूलक होगी तब वे धर्ममूलक चेटाही वैराग्यको उत्पन्न करके ज्ञान का प्राप्ति करा सकेंगी। इसी लिये यह ज्ञानमूर्ति धमरूपी नॉदिये पर आरुढ है। इस प्रकार उस धर्मरूप वाहनको सन्तुष्ट करके ही इस शिवस्वरूपको प्राप्ति सम्भव हो सकती है। उस धर्मरूप नॉदियेके सींगपर पृथ्वी टिकी हुई है, अर्थात् धर्मके आधार ही संसारकी स्थिति है और जब धर्मका ह्रास होता है तभी पृथ्वी (अर्थात् समष्टी जीव) शोकातुर होती है। ज्ञानरूपी गङ्गा इस शिवस्वरूपकी जटाओं से निकली है, जिसकी तीन धाराएँ तीनों लोकोंको व्याप्त करके स्थित हैं, अर्थात् जो सर्व देश और सर्व कालमे सुलभ है। जिस प्रकार गङ्गास्नानका फल तीर्थ-पुरोहितों को सङ्कल्प देकर सन्तुष्ट किये बिना नहीं मिलता, इसी प्रकार ज्ञानवान् अनुभवी महापुरुप इस ज्ञान-गहाके तीर्थ-पुरोहित हैं। संसारसम्बन्धी अहंता-ममताके सङ्कल्पद्वारा इन पुरोहितोंको सन्तुष्ट करके ही इस ज्ञान-गङ्गाके स्नानका यथार्थ फल पाया जा सकता है । इस प्रकार जिन्होंने जात-पॉतके विचार विना उपयुक्त विधिसे इस गङ्गामें मन्जन किया है, उनको नकद फल तत्काल मिल जाता है और चितापसे मुक्त हो इसी प्रकार उनका हृदय
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