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श्रात्मविलास]
[२०४ प्रकृतिके राज्यमे ईश्वरसृष्टिम प्रतिमापूजन अनिवार्य है। प्रतिमा-पूजनकी मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, समाजी भले मनिवार्यताही प्रतिमापूजनका खण्डन किया करें बुतपरस्त आदि शब्दोंसे भले ही अपमान किया करे, परन्तु ईश्वरसृष्टिमें इसका लोप हो नहीं सकता, क्योंकि यह मानसिकप्रकृतिके अनुकूल है। मनका स्वभाष है कि यह प्रेम चाहता है, प्रेमशून्य रह नहीं सकता । यह वात दूसरी है कि प्रेमका विषय चाहे भिन्न-भिन्न हो। किसीका ईसामें प्रेम है तो किसीका भूसाम। किसीका गुरुनानकदेवम प्रेम है तो किसीका स्वामी दयानन्दजीमे । किसीका मन धनुपधारीका शिकार हुआ तो किसी का छैलछवीलेकी वॉकी छविमे उलझ पड़ा ! जिस-जिसको जिसजिसके चरित्र मन भाये उसोमें उसका मन अटक गया। 'रुचीनां वैचित्र्यात् । प्रकृतिके अनुसार रुचिका भिन्न-मिन्नहोना स्वभाविक है। मन कि परिच्छिन्न और विषमदृष्टिवाला है, इसी लिये किसीमे उत्कृष्ट रूपसे पूज्यबुद्धि और किसीमें अपकृष्ट रूपसे अपड्यवद्धिका होना जरूरी है। अस्तु, जिसका मन जिसमे अटके प्रयोजन अटकानेसे है। देवबुद्धिसे जिम-तिस रूपमे मनको अटकानेका प्रयोजन यही है कि वह सांसारिक अटकसे निकल जाय और यह तो पुण्यरूप ही कार्य है। सभीके मूलमे अन्ततः वस्त एक ही है और ये सभी मूलमे किसी एक ही वस्तके लक्षण रूप हैं। जैसे किसीने पूछा, “देवदत्तका घर कौनसा
र वो बतलानेवालेने अङ्गुलीके इशारेसे बतला दिया कि "जिस घरपर काक वैठा है वह देवदत्तका घर है"। अब चाहे का घरपर बैठा रहे या उड़जाय, घरका पता काकने दे दिया। जिस प्रकार काक घरके किसी एक देशमे है अन्य देशमे नहीं
और किसी एक कालम है अन्य कालम नहीं, परन्तु अन्य घरोसे देवदत्तके घरको भिन्न जना देता है। जिस रूपसे काक देवदत्तके