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आत्मविलास ]
[२१० राष्टिपात होगा, अवश्य मन मुक जायगा, चाहे शरीर झुके या न झुके। यदि मन भी न मुके तो वह उनका प्रेमपात्र ही नहीं और फिर उनके वचनोंका अधिकारी भी नहीं। यदि मन झुका है, परन्तु शरीर न मुके तो यह एक प्रकारकी कठोरता कही जा सकती है या मनकी चोरी, जोकि उसके उद्धारमे वडा प्रति. बन्धक है । सारांश, कोई चौकी या पुस्तकको मत्था टेकता है तो कोई सूलीको, कोई पत्थरके कावेको चुम्वन करता है तो कोई कागजके ॐको, आखिर यह बुतपरस्ती जा नहीं सकती।
और सव बातें जाने दीजिये, गरमीका मौसम है ठण्डे पहाड़ों में सैर करने निकले । किसी पर्वतीय सुन्दर दृश्यपर आँख पड़ी, तत्काल फोटो उतार लिया। घर आए जब कभी उस दृश्य का फोटो ऑखोंके सामने आया हृदय उसकी स्मृतिसे ठण्डा हो गया । लो जी | जब जड़ पहाडोंके फोटोमे हृदयको ठण्डा कर देनेका सामर्थ्य है, तब उन चैतन्य जगदाधार विभूतियोंके फोटो ही इतने निस्सार हैं कि भावुकोंके हृदयोंको वहा न देंगे और उन जड़ पहाडों जितना भी काम न देगे? यह तो हृदय की जड़ताका ही चिह्न कहा जायगा। चाहे कोई लाख यत्ल करे यह प्रतिमापूजन तो जा नहीं सकता। और जाय भी कैसे ? स्वभाव सिद्ध वस्तका लोप कैसे हो सकता है ? प्रकृतिका गला कैसे घोटा जा सकता है जैसे अन्नके आलम्बन विना शरीरकी स्थिति रह नहीं सकती, इसी प्रकार मन भी किसी न किसी भाव मयी मर्तियोंके आलम्बन बिना रह नहीं सकता। और जबकि यह इतना स्वाभाविक है तो क्यों न इसको (Directly)साक्षात्
से सेवन किया जाय और दिल खोलकर अपने भावोदगार निकालनेका अवसर दिया जाय ? किसी मन्दिरमें ही जाकर ऐसा करना आवश्यक नहीं, अपने घरोंको ही मन्दिर क्यों न बना लिया जाय ? खाली घरोंको ही मन्दिर नहीं